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इन्द्रियस्थान - अ० ७.
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नचिको होकर कांपने लग वलसे हीन हो, प्याससे व्याकुल हो और मुख सुखजाय वो वह मृत्युको प्राप्त होताहै ॥ २५ ॥
यस्यगण्डावुपचितौज्वरकासौचदारुणौ ।
शूलीप्रद्वेष्टिचाप्यन्नतस्मिन्कर्मनासयति ॥ २६ ॥
जिस रोगी के दोनों गण्डस्थल (गडवाले) फूलजायँ, ज्वर और खांसी अत्यंत दारुण हो, छाती में झूल तथा अन्नसे द्वेष हो तो उस रोग की चिकित्सा करना वृथा है २६ ॥ व्यावृत्तमर्द्धनि ह्वाक्षोभ्रुवौयस्यचविच्युते
। कण्टकैश्चाचिताजिह्वायथा प्रेतस्तथैवसः ॥ २७ ॥
जिस रोगी के मस्तक, जीभ और दोनों भौंहें टेढी अथवा ऊपरको उल्टीसी होगई हों तथा भिके ऊपर बहुत कांटेसे होगयेहों उसको मरेहुए के समान जानना ॥ २७॥ शेफश्चात्यर्थमुत्सिक्तं निसृतौवृषणा भृशम् ।
अतश्चैवविपर्यासाविकृत्या प्रेतलक्षणम् ॥ २८ ॥
जिस मनुष्यका लिंग पीछेको इटगया हो और दोनों फोते लटक आये हों अथवा इससे विपरीत होगये हों या स्वभावसे विपरीत होगये हों यह मरनेवाले मनु suके लक्षण जानना ॥ २८ ॥
निचितंयस्यमांसस्यात्त्वगस्थिचैवदृश्यते ।
क्षीणस्यानश्नतस्तस्यमा समायुः परंभवेत् ॥ २९ ॥
जिस मनुष्य के शरीर में मांस बिलकुल क्षीण होगयाहो, केवल त्वचा और अस्थि मात्र दिखाई देते हों तथा वह आहार न करताहो इसप्रकार के क्षीण मनुष्यकी एक महीने की परमआयु समझना चाहिये ॥ २९ ॥
तत्र श्लोकः । इदंलिंगमरिष्टाख्यमनेकमभिजज्ञिवान् ।
आयुर्वेदविदित्याख्यांलभते कुशलोनरः ॥ ३० ॥
इति चरकसंहितायामिन्द्रि० पूर्वरूपीयमिद्रियं समाप्तम् ॥ ७ ॥ अव अध्यायके उपसंहारमें एक श्लोक है कि, जो वैद्य इन अरिष्टनामक अनेकप्रकारके लक्षणोंको भलेप्रकार जानता है उसी कुशल पुरुषको आयुर्वेदका जाननेवाला कहना चाहिये ॥ ३० ॥
इति श्रीमहर्षिचरक० इन्द्रियस्थाने भाषाटीकायां पूर्वरूपीयमिन्द्रियं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥७॥