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विमानस्थान-अ०८.
(६२३) प्रथम अपनी परीक्षा करे। गुणोंमें गुणसे कार्यकी सफलता देखताहुआ यह विचार करे कि मैं इस कार्यको समर्थन करनेके योग्य हूं या नहीं ॥ ९६॥
तत्रेमेभिषगगुणायैरुपपन्नोभिषग्धातुसायाभिनिवर्त्तनेसमर्थों भवतितद्यथापर्यवदातश्रुततापरिदृष्टकर्मतादाक्ष्यंशोचंजितहस्तताउपकरणवत्तासर्वेन्द्रियोपपन्नताप्रतिज्ञताप्रविपत्तिज्ञता
चेति ॥ ९७॥ जिस वैद्यमें यह आगे कहहुए संपूर्ण गुण विद्यमान हों वह ही धातुओंको साम्यावस्थामें लानेके लिये समर्थ होता है वह गुण इस प्रकार हैं। जैसे-शास्त्रमें पारंगत होना, बहुश्रुत होना,आयुर्वेदीय कर्मों में चतुर होना, बहुदर्शी होना, पवित्र होना, जितहस्त होना, औषधादि संपूर्ण उपकरणयुक्त ( सामग्रीयुक्त) होना । सर्वेन्द्रियसम्पन्न होना, प्रकृति विशेषका ज्ञाता होना,चिकित्सा कर्मके फल विशेष जाननेमें तथा चिकित्सा क्रमके जाननमें चतुर होना इन गुणोंसे युक्त वैद्य उत्तम होता है ॥ ९७ ॥
भेषजपरक्षिा। करणपुनर्भेषजम् । भेषजनामतद्यदुपकरणायोपकल्प्यते, भिषजोधातुसाम्याभिनिवृत्तप्रियतमानस्य, विशेषतश्चोपायान्तरेभ्यः तद्विविधव्यपाश्रयभेदादेवव्यपाश्रययुक्तिव्यपाश्रयञ्च । तत्रदेवव्यपाश्रयमन्त्रौषधिमणिमङ्गलबल्युपहारहोमनियमप्रायश्चित्तोपवासदानस्वस्त्ययनप्रणिपातगमनादि । यु. क्तिव्यपाश्रयंसंशोधनोपशमनेचेष्टाश्चदृष्टफला:एतच्चैवभेषजमङ्गभेदादपिद्विविधंद्रव्यभूतमद्रव्यभूतञ्चतत्रयदद्रव्यभूतंतदुपायाभिप्लुतम् । उपायोनामभयदर्शनविस्मापनक्षोभणहर्षगभर्त्सनवधबन्धस्वप्नसंवाहनादिरमूत्तोंभावोयथोक्ताःसिद्धयु. पायाश्च । यत्तुद्रव्यभूतंतद्वमनादिषुयोगमुपौत ॥ ९८ ॥ करण औषधिही है। आषध-चिकित्सा कार्यके उपकरणार्थ होती है । इसलिये औषधकी परीक्षा करनी चाहिये । जव वैद्य धातुसाम्य करनेके लिये प्रवृत्त हो तो उपायांतरसे औषधकी विशेष परीक्षा करे वह औषध दो प्रकारके होतेहैं।१ दैवव्य. पाश्रय । २ युक्तिव्यपाश्रय। उनमें-मणि, मंत्र,औषध, मंगलक्रिया, बलिदान, उप