________________
१६२) चरकसंहिता-भा० टी०। गणेसाहेन्द्रविमलेम्मसि ॥ ५९ ॥ तैलादशगुणशेपंकपायमवतारयेत् । तेनतैलंकपायेणदशकृत्वोविपाचयेत् ॥ ६० ॥ अथास्यदशमेपाकेसमांशंछागलंपयः । दद्यादेषोणुतैलस्य नावनीयस्थसंविधिः ॥६१॥ तस्यमात्रांप्रयुञ्जीततैलस्याईपलोन्मितामास्निग्धस्विन्नोत्तमाङ्गस्यपिचुनानावनैस्त्रिभिः॥२॥ व्यहोत्यहाच्चसप्ताहमेतत्कर्मसमाचरेत् ।निवातोष्णसमाचारोहिताशनियतेन्द्रियः ॥१३॥
अणुतलक्षी विधि लिखते हैं चंदन, अगर, तेजपत्र,दारुहलदी,दालचीनी, मुलैठी, खरेंटी, पंड्यारा, छोटी इलायची, वायविडंग,वेलगिरी, कमल,नेत्रवाला, खस,केवटीमोया, तज,नागरमोथा, शारिखा, शालिपर्णी, देवदारु, पृष्ठपर्णी, जीवतो, शतावर, रेणुका,बडी कटेली. छोटी कटेली,शल्लकी, कमलकी केशर, इन सव औषधि. यांको कूटकर सौगुने वर्षाके निर्मल जलमं पकाये जव चतुर्थावशेष रहे तो उता' छानले फिर इससे दशवां हिस्सा तेल लेकर उसमें तेलकी वरावर काथ डालकर पका. , 'पानी जलकर तेल रहनेपर एक भाग हाथ फिर मिलाये इसी प्रकार दशवारमें सब काय तेलम जलादे परन्तु दशी वार इसमें वरावरका वकरीका दूध डालकर पकावे तेलमात्र शेष रहनेपर छानले इस तेलको अणु (सूक्ष्म ) तेल कहते है । इसके नस्यकी यह विधि है, दो तोला तेल लेकर पहले मस्तकको स्निग्ध करे फिर मस्तकको पसीना दे फिर तीन २ दिनके अन्तरसे रूई के फोहके साथ इस तेल की नसवार देवे इस प्रकार एक सप्ताह करे और नस्य लेनेके पीछे वासे बचकर रहे गर्मजलका व्यवहार करे, पथ्य और मित भोजन करे. जितेन्द्रिय हे ॥ ५७-६३ ॥
तेलके गुण । तैलमेतत्रिदोपतमिन्द्रियाणांवलप्रदम् ।
प्रयुञ्जानोयथाकालंयथोक्तानश्नुतेगुणान् ॥ ६४ ॥ यह तेल विदोषनाशक है और इंद्रियाको वल देता है । यह उचित रीतिसे काल आदि विचारकर सेवन कियाहुआ अनेक गुणांको करता है ।। ६४ ॥