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________________ ( १५४ ) चरकसंहिता - भा० टी० लयन्बली । स्नेहा ग्निरुत्तमांतृष्णांसोपसर्गामुदीरयेत् ॥ ६९ ॥ वालंस्नेहसमृद्धस्यशमायान्नं सुगुर्वपि । सचेत सुशीतं सलिलं ना - ' सादयतिदह्यते॥७०॥ यथैवाशीविषःकक्षमध्यगः स्वविषाग्निना ७१ जिस मनुष्यकी ग्रहणकिला में पित्त वहुत वढाहुआ है और अनिका वल अधिक हैं वह मनुष्य यदि स्नेह पीवे तो अग्निके वलसे वह स्नेह भस्म होजाता है । फिर वह ढहुआ अनि स्नेहको जलाकर शरीर के आजतेजको दहन करने लगता है और घोर प्यासको प्रगट करता है, उस समय स्नेहसे वढे हुए अग्नि में भारी अन्न भी बहुत नहीं होता अर्थात् उस भस्मकानि में यदि भारी भोजन और शीतल जल न दिया जाय तो वह शरीरकी धातुओंको ऐसे दहन करदेता है जैसे कक्षामं स्थित आशीविष अपने विषरूप से दहन करदेता है ॥ ६८ ॥ ६९ ॥ ७० ॥ ७१ ॥ अजीर्ण स्नेहपान में उपाय । अजीर्णेयदितुस्नेहेतृपास्याच्छ्र्द्दयेद्भिषक् ॥ शतिदेिकंपुनःपीत्वाभुक्त्वारुक्षान्नमुल्लिखेत् ॥ ७२ ॥ नसर्पिः केवलेपित्ते पेयं सामेविशेषतः ॥ सर्वानुचरेद्देहहत्वासंज्ञाञ्च मारयेत् ॥ ७३ ॥ जब तक स्नेह जीर्ण न हुआ हो और तृषा आदि उपद्रव न वढगये हों तब तक शीघ्र छर्दन करादेव और शीतल जल पिलावे । तथा रूक्ष भोजन कराके फिर छर्दन करावे ॥७२॥ केवल पित्तमं और आमसहित पित्तमं विशेष करके घृतपान न करे, क्योंकि वह स्नेह सर्वशरीरमें व्याप्त होकर संज्ञाको नष्ट करदेता है और मृत्यु तक करदेताहै ॥ ७३ ॥ स्नेहभ्रमके उपद्रव । ॥ तन्द्रासोत्क्लेश आना होज्वरः स्तम्भोविसंज्ञता कोष्ठानि कण्डुः पाण्डुत्वंशो फाशस्य रुचिस्तृपा । जठरंग्रहणीदोषः स्तमित्यंवाक्यनिग्रहः ॥७२॥ शूलमामप्रदोषाश्चजायन्तेस्नेहविभ्रमात् । तत्राप्युलेखनं शस्तंस्वेदः कालप्रतीक्षणम् ॥ ७५ प्रतिपत्तिर्व्याधिवलंबुद्धाचंसनमेवच । तकारिष्टप्रयोगश्चरूक्षपानान्नसेवनम् ॥ मुत्राणांत्रिफलायाश्च स्नेहव्यापत्तिभेषजम्॥ ॥ ७६ ॥ अकालेचाहितश्चैवमात्रयानचयोजितः ॥ ७७ ॥
SR No.009547
Book TitleCharaka Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamprasad Vaidya
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1923
Total Pages939
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Medicine
File Size48 MB
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