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चरकसंहिता-भा० टी०। हस्तिपार्णनी। एतानिवमनेचैवयोज्यान्यास्थापनेषु च।।८।। दशयान्यवशिष्टानितान्युक्तानिविरेचने । नामकर्मभिरुक्तानिफलान्येकोनविंशतिः॥ ८३॥
शंखपुष्पी, वायविंडग, त्रपुष (खीरा), मैनफल, अनूपज और जलज: मुलहठी, धामार्गव ( अपामार्ग या कटुतुम्बी), इक्ष्वाकु (कडुई तोरई ),जीमूत और कृतवेधन (यह दोनों भी तोरईके भेद है), कंजा, लताकरंज, चिरचिटा, हरड, अंत:कोटरपुष्पी ), नीलिनी ( हस्तिपीके फल (मोरट या लाल एरंडका फल ), कमीला,
मलतास,और इंद्रजौ यह उन्नीस फलप्रधान हैं। इनमें से कड्डुई तोरई,कडुई घीया, कई तुवी,कृतवेधन (यह भी तोरईका ही भेद है), मैनफल, इंद्रजौ, खीरा, हस्तिपर्णी,यह नव द्रव्य वमन और आस्थापनमें काम आते हैं।प्रत्यकपुष्पी (चिरचिरा) नस्य और वमनमें प्रयुक्त कीजाती है। वाकी दश फलप्रधान द्रव्य विरेचनमें प्रयुक्त किये जाते हैं । इस प्रकार फलप्रधान १९ औषधियोंके नाम और कर्मको कथन किया है ।। ७९ ॥ ८० ॥ ८१ ॥ ८२ ॥ ८३ ॥
चारप्रकारके स्नेह । . सपिस्तैलंवसामज्जालेहोदृष्टश्चतुर्विधः । पानाभ्यञ्जनवस्त्यर्थ
नस्वार्थचैवयोगतः ॥८४ ॥ स्नेहनाजीवनावल्यावर्णोपचयव.. र्धनाः । स्नेहाह्येतेषुविहितावातपित्तकफापहाः॥ ८५॥ घी, तेल, चरवी,मजा, यह चार प्रकारके स्नेह देखनमें आतेहैं।यह प्रायःपीनेमें, मालिश करनेम, वस्तिकर्ममें, और नस्यमें प्रयुक्त कियेजाते हैं। यह चतुर्विध स्नेह,. स्नेहन, जीवन, वर्णकारक और वलवर्धक है तथा वात,पित्त,कफ इन तीनों दोषोंको दूर करते हैं ॥ ८४ ॥ ८५ ॥
लवणपञ्चक। सोवर्चलंसैन्धवञ्चविडमोद्भिदमेवच । सामुद्रेणसहैतानिपञ्च स्युलवणानिच ॥ ८६ ॥ स्निग्धान्युप्णानितीक्ष्णानिदीपनीयतमानिच । आलेपनार्थयुज्यन्तेस्नेहस्वेदविधौतथा ॥ ८७॥ अधोभागोईभागानरूहेप्वनुवासने । अभ्यञ्जनेभोजनायें शिरसश्चविरेचने ॥८॥ शस्त्रकर्मणिवस्त्यर्थमननोच्छादनेपुच । अजीर्णानाहयोतिगुल्मेशलेतथोदरे ॥ ८९ ॥