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चरकसंहिता-भा० टी०। जिस रोगीका कण्ठ, मुख और छाती यह बिल्कुल रुकजायँ और वह जल, दूध आदि पतले पदार्थोको भी न पीसकें उसकी अवश्य मृत्यु होतीहै ॥ ९॥
स्वरस्यदुर्बलीभावहानिञ्चवलवर्णयोः।
रोगवृद्धिमयुक्त्याचदृष्ट्वासरणमादिशेत् ॥ १०॥ जिस रोगीका स्वर हीन होजाय, बल और वर्ण नष्ट होजाय और रोगकी वृद्धि होतीचलीजाय उसको विनाही किसी परीक्षाके मरनेवाला जानना चाहिये ॥१०॥ - अर्द्धश्वासंगतोष्माणशूलोपहतवंक्षणम् ।
शर्मचानधिगच्छन्तंबुद्धिमान्परिवर्जयेत् ॥११॥ जिस रोगीके ऊर्द्धश्वास चलनेलगे शरीर शीतल पडजाय,दोनों वक्षणोंमें अत्यंत शूल होनेलगे और किसीप्रकार भी शान्तिको प्राप्त न हो ऐसे रोगीको बुद्धिमान, त्याग देवे ॥११॥
अपस्वरभाषमाणंप्राप्तमरणमात्मनः ।
श्रोतारञ्चाप्यशब्दस्य दूरतःपरिवर्जयेत् ॥ १२॥ . जो रोगी अनेक प्रकारके विनाहुए शब्दोंको सुने और अपने मुखसे आप ही अपनी मृत्युको हतस्वरसे होनेवाली कथन करताहो उस रोगीको त्याग देना चाहिये।।१२॥ . यंनरंसहसारोगोदुर्वलंपरिमुञ्चति । संशयप्राप्तमात्रेयोजीवितंतस्य मन्यते॥१३॥अथचेज्ज्ञातयस्तस्ययाचेरन्प्रणिपाततः। रसेनायाः दितिब्यान्नास्मैदद्याद्विशोधनम् ॥१४॥ मासेनचेन्नदृश्येतविशेष
स्तस्यशोभनः । रसैश्वान्यैर्बहुविधैर्दुर्लभंतस्यजीवितम् ॥ १५ ॥ ' जिस अत्यंत दुर्बल रोगीको झट एकसाथ रोग छोडकर अलग होजाय उसका जीवन संशययुक्त ही जानना चाहिये यदि ऐसे समय रोगीके घरवाले वैद्यसे अधिक प्रार्थना करें कि, इसकी चिकित्सा कीजिये तो उनको कहे कि इसको मांसरस या विधिवत् बनायाहुआ यवोंका रस पीनेको दो परंतु ऐसे मनुष्यको विशोधन नहीं देना चाहिये। यदि उस रोगीको अनेक प्रकारके रस आदिकोंके सेवनसे एक महीने भी कुछ फायदा प्रतीत न हो तो उसका जीवन दुर्लभ समझकर त्याग देवं ॥ १३ ॥ १४॥ १५ ॥
निष्ठयूतञ्चपुरीषञ्चरेतश्चाम्भसिमजति । यस्यतस्यायुषःप्राधमन्तमाहुर्मनीषिणः ॥ १६ ॥ !
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