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चरकसंहिता-भा० टी०।
आयुर्वेदावतरणक्रम । दीर्घजीवितमन्विच्छन्भरद्वाजउपागमत् ।
इन्द्रमुग्रतपावुद्धाशरण्यममरेश्वरम् ॥ १॥ पूर्व कालमें वर्तमान समयकी समान किमीवातको जानने के लिये सहस्रां प्राणियों , का प्राण अर्पण करनेकी आवश्यकता नहीं होतीथी । उस समय महात्मा तपस्वी अपने तप और योग वलसे भूत भविष्यत्को जानकर उसका उचित उपाय अपने तपोवलसे जानलेतेथे फिर वह कार्य जिसरीतिसे सिद्ध होनेवाला हो वह प्रयल करलेतेथे । सो वही इसमें लिखा है कि दीर्घजीवनकी इच्छा करते हुए तपोवलशाली महात्मा भरद्वाजजी देवताआके पति इंद्रको इस कार्यकी सिद्धिके योग्य समझकर उनके पास गये ॥ १ ॥
ब्रह्मणाहियथाप्रोक्तमायुर्वेदप्रजापतिः। जग्राहनिखिलेनादावश्विनौतुपुनस्ततः ॥ २ ॥ अश्विभ्यांभगवाञ्छकःप्रतिपेदे हिकेवलम् । ऋषिप्रोक्तोभरद्वाजस्तस्माच्छक्रमुपागमत् ॥ ३॥
क्योंकि पहलेपहल ब्रह्माने संपूर्णरूपसे आयुर्वेद दक्षमजापतिके पास कथन ' कियाथा। फिर प्रजापतिसे अश्विनीकुमाराने क्रमपूर्वक संपूर्ण ग्रहण किया । अश्विनीकुमारासे केवल इंद्रने ही पढा इसलिये ऋषियोंके कहनेसे महर्षि भरद्वाज इंद्रके पास गये ॥ २ ॥३॥
आयुर्वेदका प्रयोजन । विनीभूतायदारोगा प्रादुर्भूताःशरीरिणाम् । उपवासतपःपाठब्रह्मचर्यबतायुपाम् ॥ ४ ॥ तदाभूतेष्वनुक्रोशंपुरस्कृत्य महर्षयः। समेताःपुण्यकाणः पावे हिमवतःशुभे॥५॥
असलम भरद्वाजका इंद्रके पास जाकर आयुर्वेद के जाननेका कारण यह था कि जव मनुष्याके उपवास, तप, पटन, पाटन, ब्रह्मचर्य, व्रत,आयु,इनके नष्ट करनेवाले अथवा यों कहिये कि इनमें विघ्न डालनेवाले रोग प्रगट हुए । तव पुण्यकर्मा महात्मा ऋषि प्राणियोंपर दया करके हिमवान, पर्वतके एक सुंदर पार्श्वम इकटे हुए॥४॥५॥
ऋषियोंका एकत्रित हा विचार करना। गिराजमदग्निश्चवसिष्टाकल्यपो भृगः । आत्रेयोगौतमः सांख्यः पुलस्त्योनारदोऽसितः ॥ ६॥ अगस्त्योवामदेवश्चमा