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चरकसंहिता-भा० टी०।
अभिशापका हेतु । तथाभिशापस्याप्यधर्मएवहेतुर्भवतियेलुप्तधर्माणोधर्मादपेताः तेगुरुवृद्धसिद्धर्षिपूज्यानवमत्यअहितानिआचरन्ति ।ततस्ताः प्रजागुर्वादिभिरभिशप्ताभस्मतामुपयान्ति । प्रागप्यभूदनेकपुरुषकुलविनाशाय ॥२७॥ तथा अभिशापका भी अधर्म ही कारण होताहै । जब धर्मरहित मनुष्य अधर्मसे मुरुजन, वृद्धजन, सिद्ध, ऋषि, तथा अन्य पूज्य महात्माओंका अपमान करतेहैं और अहितकर्मका आचरण करतेहैं तब उन गुरुजन आदिकोंके अभिशापसे अधर्मी प्रजा नष्टताको प्राप्त होजातीहै । ऐसे गुरुजनोंके अभिशापसे पहिलेके युगमें अनेक पुरुषोंके वंश नष्ट होगयेहैं ॥ २७॥
नियतप्रत्ययोपलम्भानियताश्चपरे ।
अनियतप्रत्ययोपलम्भादनियताश्चापरे ॥२८॥ बहुतसे मनुष्य आयुके नियत होनेसे पूर्णआयुको भोगतेहैं । बहुतसे आयुके अनिश्चित होनेसे अकालमें ही अर्थात् बाल अथवा युवावस्थामें ही मृत्युको प्राप्त होतेहैं । (तात्पर्य यह है कि अधर्मकी वृद्धिसे आयु नियत न रहकर अकालमें मृत्यु होतीहै और धर्मके रहनेसे मनुष्य पूर्णआयुभोगतेहैं ।जब अधर्म नहीं होताथा तब वर्तमान समयके अनुसार अनियत मृत्युयें भी नहीं होतीथीं। ) ॥ २८ ॥ .
संसारमें अधर्मके आनेका क्रम । प्रागपिचाधाहतेनाशुभोत्पत्तिरन्यतोऽभूत् । आदिकालेहि अदितिसुतसमौजसोऽतिविमलविपुलप्रभावाःप्रत्यक्षदेवदेवर्षिधर्मयज्ञविधिविधानाशैलेन्द्रसारसंहतस्थिरशरीराःप्रसनवर्णेन्द्रियाःपवनसमबलजवपराक्रमाश्चारुफिचोऽभिरूपप्रमाणातिप्रसादोपचयवन्तःसत्यार्जवानृशंस्यदानदमनियमतपउपवासब्रह्मचर्य्यव्रतपराव्यपगतभयरागद्वेषमोहलोभ - क्रोधशोकमानरोगनिद्रातन्द्राश्रमकुमालस्यपरिग्रहाश्चपुरुषा बभूवुरमितायुषः ॥ २९ ॥ पूर्वकाल ( सतयुग) में भी अधर्मके बिना कभी किसी अशुभकी उत्पत्ति नहीं शेतीची देखिये पहिले समयमें मनुष्य दैत्यों के समान बलवान होतेथे अत्यन्त विमल
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