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(१७०) चरकसंहिता-भा० टी०।
रीपर्दग्धपरिते । स्ववच्छन्नः ससंस्तीर्णेऽभ्यक्तस्विद्यतिना सुखम् ॥ ६२॥ पहले निर्वात और सीधी भूमिमें सोनेयोग्य लंबा चौडा और उससे दुगुना गहरा कूप वनावे और अंदर साफ करदे। फिर उसमें हाथी, घोडा,गौ,गर्दभ,ऊंट इनकी सूखीहुई लीद भरकर भाग लगादेवे । जव धूम निकललेवे तो उसपर शय्या विछा. कर रोगीके शरीरपर तेल मलकर उस शय्यापर सुलावे इससे सुखपूर्वक स्वेदन होग इसको कूपस्वेद कहते हैं ॥ ६१॥६२ ॥
होलाकस्वेदका वर्णन । धीतिकान्तुकरीपाणांयथोक्तानांप्रदीपयेत् । शयनान्तःप्रमा
नशय्यामुपरितत्रच ॥६३ ॥ सुदग्धायांविधमायांयथोक्तामुपकल्पयेत् । स्ववच्छन्नः स्वपस्तत्राभ्यक्तः स्विद्यतिनाखम् ॥६४ ॥ होलाकस्वेदइत्येषसुखः प्रोक्तोमहर्षिणा । इतित्रयोदशविधः स्वेदोऽग्निगुणसंश्रयः॥६५॥ हार्था आदिकी सूखी लीदकी शयन प्रमाण ढेरी लगाकर जलावे जब जलकर धूम निकलजाय फिर उसपर ऊंची सी चारपाई विछावे । फिर वातनाशक तेलोस स्निग्ध कर रजाई आदि वस्त्र लेकर उस शय्यापर रोगी सोवे तो सुखपूर्वक पसीना आवे इसको होलाक स्वेद कहतेहैं । इस प्रकार अग्निके योगसे १३ प्रकारके स्वेद होतेह ।। ६३ ॥६४ ॥ ६५ ॥
विना अग्नि स्वेदनविधान ।। व्यायामउष्णसदगुरुप्रावरणंक्षुधा । वहुपानभयक्रोधावुपनाहाहवातपाः॥ ६६ ॥ स्वेदयन्तिदशैतानिनरमग्निगुणादृते । इत्युक्तोद्विविधः स्वेदः संयुक्तोऽग्निगुणैर्नच ॥६७॥ व्यायाम करनेसे, गरम घरमें रहनेसे, भारी वस्त्र धारण करनेसे, भूखे रहनेसे,. बहुत मद्य पीनेसे, भयम, क्रोधसे, उपनाहसे,युद्धसे, धूप लगनेसे, इन दश कारसे अनिके बिना ही पसीने होजातह। इस प्रकार अमिके योगसे और विना अग्निसे दो प्रकारमे पसीने आतेह ॥ ६६ ॥ ६७ ।।
एकाहसीलगतः स्निग्धोरूक्षस्तथैवच । इत्येतत्रिविधंदन्दस्वंदमुद्दिश्यकीर्तितम् ॥६८॥ स्निग्धास्वेदैरुपकम्यः स्विन्नः