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इन्द्रियस्थान - व्य०.६.
( ८३९ )
जिस रोगी के रोम खडे हों, मूत्र आंत्रसहित आताहो, शरीरपर सूजन हो तथा खांसी और ज्वरसे पीडित हो, मांस क्षीण होगयाहो उसका ज्ञानी वैद्य दूरसे हीं त्याग देवे ॥ १४ ॥
त्रयः प्रकुपितायस्य दोषाः कोष्ठे ऽभिलक्षिताः । कंशस्य बलहीनस्यनास्तितस्यचिकित्सितम् ॥ १५ ॥
जिस बलहीन दुर्बल रोगीके कोष्ठमें वातादि तीनों दोष कुपित होकर प्राप्त.. होजायें उस रोगी की कोई चिकित्सा नहीं है अर्थात् वह अवश्य मरेगा ॥ १५ ॥ ज्वरातिसारौशोफान्तेश्वयथुर्वातयोः क्षये ।
दुर्बलस्यविशेषेणनरस्यान्तायजायते ॥ १६ ॥
जिस मनुष्यको ज्वर और व्यतिसार के अन्तमें सूजन उत्पन्न होना अथव सूजन के अन्तमें ज्वर और अतिसार उत्पन्न होजायँ और वह मनुष्य विशेषरूपसेबलहीन हो तो उसकी अवश्य मृत्यु होती है ॥ १६ ॥
पाण्डूदरः कृशोऽत्यर्थं तृष्णयाभिषरिप्लुतः ।
डम्बरी कुपितांच्छ्रासः प्रत्याख्येयोविजानता ॥ १७ ॥
जो रोगी पांडुरोग सहित उदर रोगसे पीडित हो और अत्यन्त कृश तथा तृषासे व्याकुल हो, दोनों नेत्र जिसके बैठजावें और बेगसे श्वास चलनेलगे तो उस रोगीको प्रत्याख्येय जानना अर्थात् यह नहीं बचेगा इसप्रकार कहदेने योग्य जानना ॥ १७ ॥
हनुमन्याग्रहस्तृणाबलहासोऽतिमात्रया ।
प्राणाश्चोरसिवर्त्तन्तेयस्यतंपरिवर्जयेत् ॥ १८ ॥ .
जिस रोग की ठोडी और मन्या यह दोनों अकड गई हों प्यासकी अधिकता हो, वल अत्यन्त क्षीण होगयाहो और प्राण केवल छाती में आगये हों उस रोगीको त्यागेदेना चाहिये ॥ १८ ॥
ताम्यत्यायच्छतेशर्म न किञ्चिदपिविन्दति । क्षीणमांसबलाहारोमुमूर्षुरचिरान्नरः ॥ १९ ॥
जो रोगी अत्यन्त व्याकुल होगयाहो और उसको किसभिकारभी शान्ति प्राप्त न होती हो, ज्ञान एकदम नष्ट होगयाहो एवं मांस बल और आहार क्षीण होग: हों उसको थोड़े ही समय में मरनेवाला जानना चाहिये ॥ १९ ॥