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चरकसंहिता-भा० टी०। वृत्तौमार्गएवच ॥ ३५ ॥ शुद्धसत्त्वसमाधानं सत्याबुद्धिश्चनेष्ठिकी । विचयेपुरुषस्योक्तानिष्ठाचपरमर्षिणा ॥३६ ॥ इति चरकसंहितायां शारीरस्थाने पुरुषविचयं शारीरं समाप्तम् ॥५॥
यहां अध्यायके उपसंहारमें श्लोक हैं-इस पुरुषविचयशारीरनामक अध्याय, जगत् और पुरुषकी सामान्यताका विचार तथा उसका प्रयोजन, दुःखोंकी उत्प, त्तिका मूल और निवृत्ति मार्ग, शुद्ध सत्त्वका समाधान, मोक्ष प्राप्त करनेवाली सत्यबुद्धि तथा मोक्ष इन सबका महर्षि आत्रेयंजीने वर्णन किया है ॥ ३५ ॥ ३६॥ इति श्रीमहर्षिचरक शारीरस्थाने भाषा कायां पुरुषविचयशारीरंनाम पंचमोऽध्यायः ॥५॥
षष्ठोऽध्यायः। अथातः शरीरविचयशारीरंव्याख्यास्याम इति हस्माह भगवानात्रेयः। अब हम शरीरविचय नामक शारीरकी व्याख्या करते हैं इसप्रकार भगवान आत्रेयजी कहने लगे।
शरीरविचयका प्रयोजन। शरीरविचयःशरीरोपकारामिष्यतभिषग्विद्यायाम् । ज्ञात्वा हिशरीरतत्वंशरीरोपकारकरेषुभावेषज्ञानमुत्पद्यतेतस्माच्छरीरविचयंप्रशंसन्तिकुशलाः ॥१॥ हे अग्निवेश ! वैद्यक शास्त्रमें शरीरके उपकारके लिये शरीर विचय जानना चाहिये शरीरतत्त्वको जाननेसेही शरीरके उपकारक भावोंमें ज्ञान उत्पन्न हो सकता. है। इसलिये शरीरविचयके जाननेकी विद्वान्लोग प्रशंसा करते हैं ॥१॥
शरीरका वर्णन। तत्रशरीरंनामचेतनाधिष्ठानभतपञ्चभूतविकारसमुदायात्मकम्॥ शरीरं चेतनाके आधिष्ठानभूत पांच महाभूतोंके विकारोंका समुदाय है ॥ २ ॥ समयोगवाहिनोयदाह्यस्मिञ्च्छरीरेधातवोवैषम्यमापद्यन्तेतः । दायंक्लेशंविनाशवाप्राप्नोतिवैषम्यगमनवापुनर्धातूनांवृद्धिहासंगमनमकात्स्न्ये न ॥३॥ . . . . . . . . ...