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शारीरस्थान-अ. ६.. (७४३)। शरीरकी सम्पूर्ण धातुएँ समयोगवाही हैं।जब यह धातुएँ शरीरमें विषमताकों प्राप्त होजाती हैं। तब यह मनुष्य कष्टको पाताहै अथवा विनाशको प्राप्त होजाताहै धातुओंका अपने परिमाणसे बढजाना या कम होजानाही विषमताको प्राप्त होना । कहा जाताहै ॥ ३॥
प्रकृत्याचयोगपद्यनतुविरोधिनांधातूनांवृदिहासौभवतः ॥४॥ प्रायः यह स्वभावसेही धातुओंका गुण है कि जब एक धातु वृद्धिको प्राप्त होती है तो उससे विपरति दूसरी धातु हीनताको प्राप्त होजातीहै ॥ ४॥
यदियस्यधातोवृद्धिकरंतत्ततोविपरीतगुणस्यधातोःप्रत्यवायकरन्तुसम्पद्यते । तदेवतस्माद्भेषजसम्यगवधार्यमाणंयुगपन्यूनातिरिक्तानांधातूनांसाम्यकरभवतिअधिकमपकर्षतिन्यूनमाप्याययतिाएतावदेवहिभैषज्यप्रयोगफलमिष्टंस्वस्थवृत्ता नुष्ठानञ्चयावद्धातूनांसाम्यस्यात् ॥ ५ ॥
जो द्रव्य एक धातुको वढानेवाला होताहै वह उससे विपरीत गुणवाली दूसरी । धातुको हीन करनेवाला होताहै । इसलिये वह एकही औषधी विधिवत् सेवन की.
हुई न्यून और अधिकहुई धातुओंको साम्यावस्थामें करदेती है क्योंकि जो धातु वहीं हुई होती है उसको अपकर्षण करके घटा देती है और घटीहुईको बढा देतीहै । इसप्रकार औषधीका प्रयोग करनेका श्रेष्ठ फल है। और मनुष्यको स्वस्थवृत्तका अनुष्ठान करना चाहिये जिससे सम्पूर्ण धातुओंकी साम्यता बनीरहे ॥५॥
धातुसाम्यकी विधि । स्वस्थस्यापिसमधातूनांसाम्यानुग्रहार्थमेवकुशलारसगुणानाहा,. रविकारांश्चपर्यायेणेच्छन्तिउपयोक्तुम् । सात्म्यसमाख्यातानेकप्रकारभूयिष्ठांश्चोपयुञ्जानास्तद्विपरीतकरणलक्षणसमाख्यातचेष्टयासममिच्छन्तिकर्तुम् ॥६॥ स्वस्थ मनुष्यों की भी समधातुओंकी साम्यता रखनेके लिये रस, गुण आदि आहारके विकारोंको उनके पर्यायक्रमसे निश्चय कर देना उचित समझतेहैं। क्योंकि एक प्रकारका रस सात्म्य होनेपर भी बहुत .खायाजाय तो. उससे जो धातुओंमें विषमता होनेवाली हो उसके विपरीत कार्य करनेवाले द्रव्यके उपयोगसे धातुओं में समता रहती है और सात्म्पतामें कोई विघ्न उपस्थित नहीं होता । इसलिये अनेक प्रकारक रसोंका भोजन करतेहुए उनके गुणादिकोंसे उनको धातुसाम्य बना,सेवन ..