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(८०८) घरकसंहिता-मा० टी० ।
एवमेनकुमारमायोवनप्राप्तधर्मार्थकुशलागमनाच्चानुपालयेदिति पुत्राशिषांसमृद्धिकरंकर्मव्याख्यातमातदाचरन्यथोक्तैर्विधिमिः पूजायथेष्टलभतेऽनसूयकइति ॥ १२८ ॥ जबतक यह बालक युग न हो जाय तबतक इस वालकको धर्म और अर्थकी योग्यता प्राप्त करने के लिये इस विधिसे पालन करना चाहिये।वालकके हित और शुभकी इच्छाके लिये तथा समृद्धिके करनेवाले यह कर्म कहेगयेहैं । जो मनुष्य निन्दा द्वेष मादिको त्यागकर इस कथन कीहुई विधिका पालन करतेहैं वह अपनी इच्छानुरूप प्रतिष्ठाको प्राप्त होतेहैं ॥ १२८॥
अध्यायका उपसंहार। युत्राशिषांकर्मसमृद्धिकारकंबटुक्तमतन्महदर्थसंहितम्।तदाचरज्ञाविधिभिर्यथातथंपूजांयथेष्टंलभतेऽनसूयकः ॥१२१॥ शरीर चिन्त्यतेसर्वदेवमानुषसम्पदासर्वभावैर्यतस्तस्माच्छारीरंस्थानमुच्यते ॥ १३०॥ इति श्रीमहर्षिचरकप्रगीतायुर्वेदसंहितायां शारीरस्थानं समाप्तम्।।
व अध्यायके उपसंहारमें दो श्लोक हैं कि पुत्रके हितके लिये और पुत्रकी समृद्धि के करनेवाला जो यह महान् अर्थका संग्रह कथन कियाहै इस विधिको इंगों, द्वेष तथा निन्दागहत ज्ञानी वैद्यके करनेसे अपनी इच्छानुरूप प्रतिष्ठाको भात होताहै । शरीरको लक्ष्य रखकर देवी और मानुषी संपत्तिका संपूर्णमावोंसे इस स्थानमही सबप्रकारसे चिन्तन कियागयाहै इसलिये इस स्थानको शारीरस्थान पहवेह ॥ १२९ ॥ १३० ॥ इति श्रीमहर्षिचरकप्रणीतायुर्वेदीयसहितायां शारीरस्थाने टकसालनिवासिरामप्रसाद.. बंद्योपाध्यायविरचितभापाटीकायां जातिसूत्रीयशारीरं नामाऽटमोऽध्यायः ॥ ८॥
शारीरिक निर्देशसों, मनुज सृष्टि विज्ञान ॥ संख्या नाडी मर्मयुत, यथा शरीर विधान ॥१॥
आत्मजगत् अध्यात्म यह, द्विविध विश्व सामान ॥
साधन मोक्ष शरीर सब, कथन कियो भगवान् ॥ २॥ . .. चरकरचित शुभतंत्र में, भयो चतुर्थस्थान ॥ ... ,
सो प्रसादनीयुत कियो, रामप्रसाद सुजान ॥ ३॥ . . ॥ समाप्तमिदं शारीरस्थानम् ।।
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