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( ८१४) . चरकसंहिता-भा० टी० ।
तथापिप्लवव्यंगतिलकालकपिडकानासन्यतस्याननेजन्मा'तुरस्यैवमेवअप्रशस्तविद्यात् ॥१४॥ • तथा प्लव ( लहसन ) व्यंग, तिल, कालक, पिडका इनका बेसमय एकाएक -रोगीके मुखपर प्रगट होजाना रोगीके लिये अशुभ कहाजाताहै ॥ १४॥
नखनयनवदनमत्रपुरीषहस्तपादौष्ठादिष्वपिचकारिकोक्तानां वर्णानामन्यतमस्यप्रादुर्भावोहीनबलवणेन्द्रियेषुलक्षणमायुषः क्षयस्यभवति । यच्चान्यदपिकिञ्चिद्वर्णवैकतमभूतपूर्वसहसोत्पद्येतानिमित्तमेवहीयमानस्यातुरस्यतचारिष्टमितिवर्णाधिकारः ॥१५॥ रागांके नख, नेत्र,सुख,मूत्र,मल और हाथ पैरोंके वर्ण एकाएक विकृत होजाये' तथा स्वाभाविक नष्ट होकर और प्रकारके वैकारिक वर्ण उत्पन्न होजाय अथवा तल. वर्ण और इन्द्रियोंमें एकाएक हीनता उत्पन्न होजाय तो यह रोगी आयुनाशक चिह्न जानने चाहिये इनके सिवाय भी और जो कभी पाहिले न देखो उस प्रकारके वर्णविकारका एकाएक उत्पन्न होजाना भी रोगीकी मृत्युका चिा होता है।इसप्रकार अरिष्टकारक वर्णाधिकारका वर्णन कियागया ॥ १५ ॥
स्वराधिकारः। स्वराधिकारस्तुहंसक्रौञ्चनेमिदुन्दुभिकलविंककाककनोतझर्झरानुकराःप्रकृतिस्वराः। यांश्चापरानुपेक्षमाणोऽपिविद्यादनकतोन्यथावापिनिर्दिश्यमानांस्तज्ज्ञैः ॥ १६ ॥ अब स्वराधिकार वर्णन करतेहैं । हंस,बगुला, चकवा, नगारा, चिडा, कौआ, कबूतर और झींगुर इनके समान स्वर होनेसे प्रकृतिस्वर अर्थात् स्वाभाविक स्वर है इनके सिवाय जिनका कथन यहांपर नहीं कियाः गयाहै उनको भी जिसमकार स्वरके जाननेवालोंने कथन कियाहो उस प्रकारसे जानलना चाहिये । यह स्वाभाविक स्वर वर्णन कियागया ॥ १६ ॥
वैकृतिकस्वरका लक्षण। । एडकयस्ताव्यक्तगद्गदक्षामदीनानुकीर्णास्तुआतुराणांस्वरावैकारिकाः। यांश्चापरानुपेक्षमाणोऽपिविद्यात्माग्विकतानसूत्वोत्पन्नानइतिप्रकतिविकृतिस्वराव्याख्याताः ॥१७॥