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चरकसंहिता - मा० टी० !
जिस मनुष्य के स्वप्न में शिरपर बांस, गुल्म, बेलें आदि प्रकट होजायँ और कौआ यदि पक्षी मुख आदि किसी अंगमें छिपजावें अथवा स्वप्नमें जिसका शिर मुण्डन Thयानावे अथवा गीध, उल्लू, कुत्ते, काग, राक्षस, प्रेत, पिशाच, स्त्रियें, चाण्डाल और दैत्य आदि चारों तरफसे घेरे हुए हों अथवा वांस, वेत, लता, फांसी, तृण, कांटे आदि संकटमें फसजाय और उन्हीमें फंसकर बेहोश हो गिरजाय तो यदि यह स्वप्न रोगीको आवे तो उसकी मृत्यु होय और स्वस्थ अवस्थामें आवे तो वह महान संकट में पडे ॥ २६ ॥ २७ ॥ २८ ॥
पापधानायां वल्मीकेवाथभस्मनि । श्मशानायतनेश्वस्वप्लेयः प्रपतत्यपि ॥ २९ ॥ कलुषेऽम्भसिपंकेच कृपेवातमसावृते । स्वप्रेमज्जतिशीघ्रेणस्रोतसाहियते चयः ॥ ३० ॥ स्नेहपानंतथाभ्यङ्गःस्वप्नेबम्धंपराजयौ । हिरण्यलाभः कलहः प्रच्छदनविरेचने ॥ ३१ ॥ उपानद्युगनाशश्चप्रपातः पांशुचर्मणोः । हर्षः स्वप्रकुपि - तैः पितृभिश्चापिभर्त्सनम् ॥ ३२ ॥ दन्तचन्द्रार्क नक्षत्र देवतादीपचक्षुषाम् | पतनंवाविनाशोवास्वप्ने भेदोनगस्यवा ॥ ३३ ॥
जो मनुष्य स्वममें धूलियुक्त पृथ्वीमें अथवा सांपकी बाँबोमें या भस्ममें या श्मशान में या गढे में गिरजाय अथवा मलिन जलमें, कचिडमें, कुएमें, या अन्धकारं डूब जाता है या नदी प्रवाहमें वहजाता है अथवा स्नेहपान या अपने शरीरपर तैल मर्दन करता है या बन्धनमें फँसजाय अथवा शत्रुओंसे हारजाय या जिसको स्व
सुवर्ण मिले या कलह हो वमन अथवा विरेचन हो अथवा दोनों जूते नष्ट होकर शरीरपर बालू और चमडेकी स्वप्नमें वृष्टि हो स्वममें हँसना और कुपित हुए पितरोंसे खाडित होना या स्वप्न में दांत, चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र, देवता, दीपक और नेत्रोंका गिरजाना देखे या नष्ट होते देखे एवं पर्वतका फटना देखे तो वह यदि रोगी हो तो मृत्युको प्राप्त होता है और आरोग्य हो तो संकटमें पडता है २९ ॥ ३० ॥ ३१ ॥ ३२ ॥ ३३ ॥ रक्तपुष्पवनं भूमिपापकर्मालयंचिताम् । गुहान्धकारसम्बाधंस्वप्ने यः प्रविशत्यपि ॥ ३४ ॥ रक्तमालीहसन्नुच्चैर्दिग्वासादक्षिणांदिशम्। दारुणामटवींस्वप्ने कपियुक्तः प्रयातिवा ॥ ३५ ॥ कषायिणामसौम्यानां नग्नानांदण्डधारिणाम् (कृष्णानांरकनेत्राणां स्वप्ने नेच्छन्तिदर्शनम्॥३६॥कृष्णापापानिराचारा दीर्घकेशनखस्तनी । विराग
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