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इन्द्रियस्थान - अ० ७.
( ८४१ )
जिस रोगीकी छाया विकृतिरूपं दिखाई दें अथवा दिखाई न देवे या उस रोगीको व्यपनी छाया न दिखाई देती हो या वह किसीकी छाया न देखसकता हो तो वैद्य उसकी चिकित्सा करने में यत्नवान् न होवे ॥ १ ॥
ज्योत्स्नायामात पेदीपे सलिलादर्शयोरपि ।
अङ्गेषुविकतायस्यछायाप्रेतस्तथैवसः ॥ २ ॥
जिसको चंद्रमाकी चांदनी, धूप, दीपक इनके आगे खडे होनेसे अपनी छाया विकृतांग दिखाई देतीहो अथवा जल या शीशेमें अपने प्रतिबिम्बको विकृतांग देखे तो वह मनुष्य अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है || २ ||
छिन्नाभिन्नाकुलाछायाहीनावाप्यधिकापिवा । नष्टातन्वीद्विधाछायाविशिरााविस्तृताचया ॥ ३ ॥ एताश्चान्याश्चयाः काश्चित्प्रतिच्छायाविगर्हिताः । सर्वामुमूर्षतांज्ञेयान चेल्लक्ष्यनिमित्तजाः ॥ ४॥ जिस मनुष्यकी छाया छिन्न, भिन्न, व्याकुल, हनि, अधिक, नष्ट, वारीक, दो भागों में कटी हुई, मस्तकरहित और बडे विस्तार पूर्वक दिखाई देतीहो इनके सिवाय अन्य निंदित प्रकारको या छिद्रयुक्त दिखाई देतीहो वह छाया भी यदि किसी पवन आदि निमित्तसे या ऊंचे नीचे स्थान आदि किसी कारणसे विकृत नहीं है तो अवश्य मृत्यु होनेवाले मनुष्यकी जाननी ॥ ३ ॥ ४ ॥
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संस्थानेनप्रमाणेन वर्णेन प्रभयातथा ।
छायाविवर्त्ततेयस्य स्वप्नेऽपिप्रेतवसः ॥ ५ ॥
जिस मनुष्यकी आकृति, वर्ण, प्रमाण, कांति व्यादिसे छाया विकृत हुई स्वप्नमें भी दिखाई दे वह अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है ॥ ५ ॥
छायाके भेद ।
संस्थानमाकृतिज्ञेया सुषमाविषमाचया। मध्यमल्पंमहचोक्तंप्रमात्रिविधंनृणाम् ॥६॥ प्रतिप्रमाणसंस्थानाजलादर्शातपादिषु । छायायासाप्रतिच्छायायाचवर्णप्रभाश्रया ॥ ७ ॥
स्थान आकृतिको कहते हैं वह आकृति सुषमा (सुन्दरता ) और विषमा इन दो भेदोंसे दो प्रकारकी होती है और मनुष्यों का प्रमाण अल्प, मध्य और बृहत्के तीन प्रकारका होता है ॥ ६ ॥ प्रत्येक मनुष्यके अपने प्रमाण और आकृतिके अनुसार जल दर्पण और धूप आदिमें जो छाया पडती है उसीको छाया कहते हैं । छाया में वर्ण और प्रभा रहनेसे उसको प्रतिच्छायां तथा कांति कहते हैं ॥ ७ ॥