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इन्द्रियस्थान-अ० ११. अतिप्रवृद्ध्यारोगाणांमनसश्चबलक्षयात् ।।
वालमुत्सृजतिक्षिप्रंशरीरीदेहसंज्ञकम् ॥२१॥ रोगोंके अत्यंत बढकर बलवान होनेसे, मन और बलके क्षीण हो जानेसे जीव देहरूपी घरको छोडकर शीघ्र बाहर होजाताहै ॥ २१ ॥
वर्णस्वरावग्निबलंवागिन्द्रियमनोबलम् ।
हीयतेऽसुक्षयेनिद्रानित्याभवतिवानवा ॥ २२ ॥ जव मनुष्यके वर्ण, स्वर, अनि, बल, वाणी,इन्द्रिय और मन इनका बल क्षीणः होजाताहै तब वह मनुष्य या तो अधिक सोता ही रहताहै अथवा जागताही रहवा है तब इस मनुष्यके प्राण शीघ्र नष्ट होजाते हैं ॥ २२ ॥
भिषग्भेषजपानान्नगुरुमित्रद्विषश्चये।
वशगा:सर्वएवैतेबोद्धव्याःसमर्चिनः ॥२३॥ जो मनुष्य-वैद्य, मौषधि, अन्न, पान, माता, पिता आदि गुरुजन,और मित्र आदिकोंसे द्वेष करने लगते हैं कालवश हुए इस प्रकारके मनुष्य एक वर्षके भीतर मृत्युको प्राप्त होजाते हैं ॥ २३ ॥
एतेषुरोगःक्रमतेभेषजंप्रतिहन्यते।।
नैषामन्नानिभुञ्जीतनचोदकमपिस्पृशेत् ॥ २४ ॥ इस प्रकार असाध्य रोगियोंको औषध नहीं देना चाहिये और न इनके अन और जलका स्पर्श करना चाहिये ॥ २४॥
पादाःसमेताश्चत्वारःसम्पन्नाःसाधकैगुणः।
व्यर्थागतायुषोद्रव्याद्विनानास्तिगुणोदयः ॥ २५॥ यदि एकत्रित औषध, वैद्य, परिचारक, रोगी यह सब चिकित्साके चारों पाद साधकगुणोंसे सम्पन्न भी हो तो भी आयुरहित मनुष्यकी चिकित्सा करना वृथा है। जैसे-औषधके बिना गुण नहीं रह सकता उसी प्रकार आयुके विना चिकित्सा भी निष्फल है ॥ २५॥
परीक्ष्यमायुभिषजानीरुजस्यातुरस्यच। ,, आयुर्वेदफलंकृत्स्नमायुह्यनुवर्तते ॥ २६ ॥
वैद्यको चाहिये कि रोगी तथा नीरोग मनुष्यके आयुकी परीक्षा करके हमें चिकित्सा करे। क्योंकि सम्पूर्ण आयुर्वेदका फल आयु ही है । वह आयु देहके