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चरकसंहिता - भा० टी० ।
प्रमुाल्लुश्चयेत्केशान्परान्गृह्णात्यतीवच ।
नरः स्वस्थवदाहारमबलः कालचोदितः ॥ १५ ॥
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जो मनुष्य बेहोशीको प्राप्त होकर अपने केशोंको टवाडता है तथा अन्य मनु'योंसे लिपट जाता है एवं रुग्णावस्था में भी रोगरहित मनुष्योंके समान बहुत भोजन करता है वह क्षीण मनुष्य अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है ॥ १५ ॥ समीपेचक्षुषोः कृत्वा मृगयेतांगुलीयकम् । स्मयतेऽपिचकालान्धऊ-र्द्धाक्षोऽनिमिषेक्षणः ॥ १६ ॥ शयनासनादङ्गात्काष्ठात्कुड्यादथापिवा । असन्मृगयते किञ्चित्समान्कालचोदितः ॥ १७ ॥
जो रोगी व्यपने हाथोंकी अंगुलियोंको नेत्रोंके समीप लेजाकर उनको वारवार देखे और विस्मितके समान ऊपरको नेत्र करके किसी विचित्र अवस्थाको देखे · तथा पलक न झपके अथवा अपनी शय्यामें वा अंगोंमें अथवा किसी काष्ठ या दीवार आदिमें जैसे किसी खोधी हुई वस्तुको ढूंढा करते हैं इस तरह वारवार टटोलें और बेहोश होजाय वह मनुष्य कालका प्रेरा हुआ जानना चाहिये ॥ १६ ॥ १७ ॥ आहास्य हसनोमुह्यन्प्रलेढि दशनच्छदौ । शीतपादकरोच्छ्रासोयोनरोनसजीवति ॥ १८ ॥
जो रोगी विना ही कारण हंसे, बिना ही किसी कारणके बेहोश होजाय तथा अपने दांतोंको और होठोंको जीभ से चाटे, जिसके हाथ और पांव ठण्डे हों तथा जो दर्घि श्वास लेता हो वह मनुष्य अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है ॥ १८ ॥ आह्वायन्तंसमीपस्थंस्वजनंजनमेववा ।
महामोहावृतमनाः पश्यन्नपिनपश्यति ॥ १९ ॥
जो रोगी अपने समीप बैठेहुए बांधवों को भी अमुक कहां हैं अमुक कहाँ है इस 'अकार बुलावे और मनके महामोहावृत होनेके कारण देखता हुआ भी न देखे अथवा अपने पास बैठे हुए बांधवों को भी न देखकर मेहामोहसे व्याकुल हो और वारंवार . gora as अवश्य मृत्युको प्राप्त होता है ॥ १९ ॥
अयोगमतियोगंवा शरीरेमतिमान्भिषक् ।
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खादीनां युगपद्दष्टा भेषजंनावचारयेत् ॥ २० ॥
जिस रोगी के शरीर में पांचभौतिक पदार्थोंको हीन देखे अथवा अत्यंत वढे देखे उसकी चिकित्सा न करे ॥ २० ॥