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(८५०, चरकसंहिता-मा० टी०॥ बडे कष्टसे इधर उधर हिलासके और उसके मस्तकसे अत्यन्त पसीना निकलने लगे, शरीरके बंधन ढीले पडजायें तो उस रोगीको मृत्युवश जानना ॥ २४ ॥
तत्रश्लोकः।। इमानिलिङ्गानि नरेषुबुद्धिमान्विभावयेतावहितोमुहुर्मुहुः । क्षणेनभूत्वाह्यपयान्तिकानिचिन्नचाफललिङ्गमिहास्तिकिञ्चना॥२५॥ । इति चरकसंहितायामिन्द्रियस्थानेऽवाशिरसीयमिंद्रियं
समाप्तम् ॥ ८॥ अब अध्यायके उपसंहारमें एक श्लोक है बुद्धिमान् वैद्य मनुष्योंमें इन लक्ष. गोंको देखकर वारवार अपने अनुभवको सावधानीसे पुष्ट करता जाय स्योंकि बहुतसे ऐसेभी लक्षण होते हैं जो थोडेसे काल रहकर फिर नष्ट होजाते हैं। और कोई लक्षण ऐसे होतेहैं जो निष्फल नहीं जाते अर्थात् अवश्य मृत्युकेकरनेवाले होते हैं इसलिये सावधानीसे परीक्षा करतेहुए अपने अनुभवको पुष्ट कर लेना चाहिये २५॥ इति श्रीमहर्पिचरक० इन्द्रियस्थाने भापाटीकायामवाशिरमीयमिन्द्रियं नामाष्टमोऽध्यायः८॥
नवमोऽध्यायः।
07-. अथातोयस्यश्यावनिमित्तीयमिन्द्रियंव्याख्यास्याम इति हस्माह भगवानात्रेयः ।
अब हम यस्यश्यावनिमित्तीय इन्द्रियाध्यायकी. व्याख्या करते हैं इसप्रकार भगवान आत्रेयजी व.थन करनेलगे ।
यस्थश्यावपरिध्वस्तेहरितेचाषिदर्शने ।
आपन्नोव्याधिरन्तायज्ञेयस्तस्यविजानता॥१॥ जिस रोगीके दोनों नेत्र श्याम, अथवा हरे और टेढे अथवा शिथिल होजायें । बुद्धिमान वेद्य उसकी व्याधिको उसके नाशके लिय उपस्थित जाने ॥ १ ॥ ... निःसंज्ञःपरिशुष्कास्यःसंविद्धोव्याधिभिश्चयः।
उपरुद्धायुषंज्ञात्वातंधीरःपरिवर्जयेत् ॥२॥ जिस रोगीकी संज्ञा (होश ) नष्ट होजाय, मुख सूखजाय और व्याधियोंसे भत्यन्त संविद हो उस रोगीको गतायु समझ लेना चाहिये ॥२॥
बुद्धिमान् वैद्य
परिशुष्कास्था परिवर्जयेत् ॥ २॥
व्याधियोंसे