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चरकसंहिता-मा० टी०॥
अष्टमोऽध्यायः।
अथातोऽवाशिरसायमिन्द्रियं व्याख्यास्याम इति हस्माह भगवानात्रेयः।
अब हम अवाशिरसीय नामक इंद्रियाध्यायकी व्याख्या करतेहैं इसप्रकार -भगवान् आत्रेयजी कथन करनेलगे ।
अवाशिरावाजिमावायस्यवाविशिराभवेत् ।
जन्तोरूपप्रतिच्छायाननमिच्छेचिकित्सितुम् ॥ १॥ जो मनुष्य अपनी छायाका नीचेको शिर देखे अथवा टेढा देखे या विना शिरके -देखे उस मनुष्यको चिकित्सा नहीं करनी चाहिये ॥१॥
जटीभूतानिपक्षमाणिदृष्टिश्चापिनिगृह्यते ।
यस्यजन्तोनतंधीरोभेषजेनोपपादयेत् ॥२॥ जिस मनुष्यकी पलकें जटाओंके समान बंधनायें और दृष्टि जाती रहे उस मनु'ख्यकी बुद्धिमान् वैद्य चिकित्सा न करे ॥ २ ॥
यस्यशूनानिवत्मानिनसमायान्तशुष्यतः ।
चक्षषीचोपदह्येतेयथाप्रेतस्तथैवसः॥३॥ जिस रोगीकी दोनों पलकें सूज जावें और दोनों पलकें आपसमें न मिलसके नेत्रोंमें अत्यंत दाह होताहो और वह पलकें सूखने में न आवें वह रोगी भी मृत्युके वश जानना ॥ ३ ॥ भ्रुवोयिदिवामूर्ध्निसीमन्तावमकान्बहून् ।अपूर्वानकृतान्व्यक्तान्दृष्वामरणमादिशेत् ॥४॥व्यहमेतेनजीवन्तिलक्षणेनातुरा नराः । अरोगाणांपुनस्त्वेतत्षडानंपरमुच्यते ॥ ५॥ जिस रोगीकी दोनों भौंहे या मस्तकमें अपूर्व जटासी होजायँ तो इन अपूर्वा' किसीकी बनाई प्रगट भंवरियोंको देखकर रोगीको मृत्यु जानलेना चाहिये यदि यह लक्षण रोगी मनुष्यके हों तो वह तीन दिनमें मरजाताहै और रोगरहितके होजायँ तो वह छः दिनमें मरजाताहै ॥ ४ ॥५॥
आयम्योत्पाटितवान्केशान्योनरोनावबुध्यते। अनातुरोवारोगीवाषड्रा–नातिवर्त्तते ॥६॥