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इन्द्रियस्थान-अ०६. (८३७) इत्यात्रेयोऽग्निवेशेनप्रश्नपृष्टःसुदुर्वचम् । ..
आचचक्षेयथातस्मैभगवंस्तन्निबोधमे ॥ २॥ इसप्रकार यह गहन विषय अग्निवेशके पूछनेपर भगवान् आत्रेयनीने जिसप्रकार अग्निवेशके प्रति वर्णन किया उसको श्रवण करो ॥२॥
त्याज्यरोगोंक लक्षण । यस्थवैभाषमाणस्यरुजत्यूर्ध्वमुरोभृशम् । अन्नश्चच्यवतेमुक्तंस्थित श्चापिनजीति ॥३॥ बलञ्चहीयतेयस्यतृष्णाचाभिप्रवर्द्धते । जायतेहृदिशूलञ्चतंभिषक्परिवर्जयेत् ॥ ४॥
जिस रोगीके बोलते समय छातीके ऊपरके भागमें अत्यंत पीडा हो और भोजन कियाहुआ उसी समय निकलजाया करे अर्थात् उदरमें ठहर नहीं सके यदि ठहरे भी तो पचे नहीं और जिसका प्रतिदिन बल क्षीण होता जाय तथा प्यास बढती चलीजाय हृदयमें शूल हो उसको वैद्य त्याग देवे ॥३॥४॥
हिवागम्भीरजायस्यशोणितश्चातिसार्यते।
नतस्मैभेषजंदद्यात्स्मरन्नात्रेयशासनम् ॥ ५॥ निस रोगीको गंभीरनामक हिचकी आनेलगे और अत्यंत रुधिर निकलताहा उसको आत्रेयनीकी आज्ञाका स्मरण करताहुआ कोई औषध न देवे ॥५॥ ...
आनाहश्चातिसारश्चयमेतौदुर्बलंनरम् ।
व्याधितंविशतोरोगौदुर्लभंतस्यजीवितम् ॥ ६ ॥ जो रोगी अत्यंत दुर्वल होजाय और उस क्षीण अवस्थामें अफारा और आतिः सार भी आकर प्रवेश होजायं तो उस रोगीके जीवनको दुर्लभ जानना चाहिये। अर्थात् उसकी अवश्य मृत्यु होजायगी ॥ ६ ॥
आनाहश्चैवतृष्णाचयमेतौदुर्बलंनरम् ।
विशतोविजहत्येनंप्राणानातिचिरान्नरम् ॥७॥ जिस रोगीको अफारा और तृष्णा यह दोनों अत्यंत बढजाय और वह रोगी अधिक दिनोंसे बीमार होनेके कारण अत्यंत दुर्बल हो तो यह रोग उस मनुष्यके आणोंको थोडे ही समयमें नष्ट कर डालतेहैं ॥ ७॥ ज्वर पौर्वाहिकोयस्यशुष्कः कासश्चदारुणः । ज्वरायस्थापराहेतु श्लेष्मकासश्चदारुणः। बलमांसविहीनस्ययथाप्रेतस्तथैवसः ॥८॥