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इन्द्रियस्थान-म०५. मचंनृत्यन्तमाविध्यप्रेतोहतियनरम् ।
स्वप्नेहराततमृत्युरपस्मारपुरःसरः ॥२१॥ जो मनुष्य स्वनमें अपनेको उन्मच होकर नाचताहुआ देखे और उस नाचवींहुई अवस्थामें उसको प्रेत उठाकर लेजावे । ऐसा स्वप्न आनेवाले मनुष्यको अप: स्मार (मृगी) रोगको आगेकर मृत्यु प्रवेश करताहै ॥२१॥
स्तुभ्येवेप्रतिबुद्धस्यहनुमन्येतथाक्षिणी।. . यस्यतंबहिरायामोगृहीत्वाहन्त्यसंशयम् ॥ २२ ॥ जिस मनुष्यके ठोडी,गर्दन और दोनों नेत्र अकडनाय उसको बहिरायाम नामक वातव्याधि प्राप्त होकर नष्ट करदेतीहै ॥ २२ ॥ __ शष्कुलीरप्यपूपान्वैस्वप्नैखादतियोनरः ।
सचेत्ताहकूछर्दयतिप्रतिवुद्धोनजीवति ॥२३॥ जो ममुष्य स्वप्न में पूडिये और: पूवोंको खाताहै और जागकर उन्हींके समान बमन कर देताहै वह मृत्युको प्राप्त होताहै ॥ २३ ॥
एतानिपर्वरूपाणियःसम्यगवबुद्धयते।
सएषामनुबन्धश्चफलञ्चज्ञातुमर्हति ॥२४॥ इन सब प्रकारके पूर्वरूपोंको जो वैद्य भलेप्रकार जानताहै वह ही इस अनुबंधक फलको जानताहै । अर्थात् मनुष्यकी रोगों द्वारा मृत्युको कहसकताहै ॥ २४ ॥
यइमांश्चापरान्स्वप्नान्दारुणानुपलक्षयेत् ।
व्याधितानांविनाशायक्लेशायमहतेऽपिवा ॥२५॥ जो मनुष्य इन आगे कहे दारुण स्वप्नोंको देखताहै वह यदि रुग्णावस्थामें देखें तो अवश्य मृत्यु हातहि और याद स्वस्थावस्थामें देखे तो महान् कष्ट उपस्थित होताहै ॥ २५ ॥
यस्योत्तमाञ्जायन्तेवंशगुल्मलतादयः । वयांसिचविलीयन्ते स्वप्ने मौढयसियाच्चयः ॥२६॥ गृघोलूकश्वकाकायैःस्वप्नेयःपरिः वार्यते । रक्षाप्रेतांपशाचस्त्रीचण्डालद्रवितान्धकैः ॥२७॥ वंशवेत्रलताप शतृणकण्टकसंकटे । प्रमुह्यतिहियःस्वप्नेलग--तिप्रपतत्यपि । २८ ॥