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इन्द्रियस्थान-अ० ५. (८२९) स्वस्था:प्रज्ञाविपर्यासरिन्द्रियार्थेषुवैकृतम् । ।
पश्यन्तियेऽसबहुशस्तषांमरणमादिशेत् ॥ २४॥ यदि स्वस्थ मनुष्य भी बुद्धिके विपरीत भावसे संपूर्ण इन्द्रियोंके विषयोंको विपरीव देख एवम अच्छेको बुरा और बुरेको अच्छा प्रतीत करे वह भी मरणासन्न जानना चाहिये ॥ २४ ॥
तत्रश्लोक। एतदिन्द्रियविज्ञानयःपश्यतियथातथा।
मरणंजीवितंचैतत्सभिषज्ञातुमर्हति ॥ २५॥ इति चरकसंहितायामिन्द्रि० इंद्रियानीकमिंद्रियं समाप्तम् ॥ ४॥
यहां अध्यायके उपसंहारमें एक श्लोक है-कि जो वैद्य इस इन्द्रियविज्ञानको यथोचित रीतिपर ठीक परीक्षा करना जानता है वही वैद्य मनुष्यके जीवन और मरणको जान सकता है ॥ २५ ॥ इति श्रीमहार्षिचरक० इन्द्रियस्थाने भाषाटीकायामिन्द्रियानकिमिन्द्रियनाम चतुर्योध्यायः ॥४॥
पञ्चमोऽध्यायः। -
- अथातः पूर्वरूपीयमिद्रियं व्याख्यास्याम इति हस्माह भग. वानात्रेयः।
अब हम पूर्वरूपीय इन्द्रियकी व्याख्या करतहैं इसप्रकार भगवान् आत्रेयजी कथन करनेलगे।
पर्वरूपाण्यसाध्यानांविकाराणांपृथक्पृथक् ।
भिन्नाभिन्नानिवक्ष्यामोभिषजांज्ञानवृद्धये ॥१॥ वद्यजनोंके ज्ञानवृद्धिके लिये पृथक् २ रोगोंके असाध्य पूर्वरूपोंको अलग २ करके वर्णन करतेहैं ॥ १॥
पूर्वरूपाणिसर्वाणिज्वरोक्तान्यतिमात्रया।
यविशन्तिविशत्येनंमृत्युवरपुरःलरः ॥ २॥ यादि ज्वरके संपूण पूर्वरूप बलवान् होकर अधिकत्तासे जिस रोगीका आश्रय लेखें तो उस रोगीके शरीरमें ज्वरको आगेकर मृत्यु प्रवेश करतीहै ॥२॥