________________
इन्द्रियस्थान - अ० ४.
चतुर्थोध्यायः ।
-२०
(८२५ )
अथात इन्द्रियानीकमिद्रियंव्याख्यास्याम इतिहस्माह भग
- वानात्रेयः ।
व्यव हम इंद्रियानीक इंद्रियको व्याख्या करते हैं इसप्रकार भगवान् यात्रेयजी कथन करने लगे ।
इन्द्रियाणियथाजन्तोः परीक्षेतविशेषवित् ।
ज्ञातुमिच्छन्भिपङ्मानमायुषस्तन्निबोधमे ॥ १ ॥
हे
वेश ! बुद्धिमान् वैद्यको आयुका प्रमाण जानने की इच्छासे जिसप्रकार - अनुष्य के इंद्रियोंकी परीक्षा करना चाहिये सो तुम श्रवण करो ॥ १ ॥ अनुमानात्परीक्षेत दर्शनादीनितत्त्वतः । अद्धाहिविदितंज्ञानमिन्द्रियाणामतीन्द्रियम् ॥ २ ॥ अथवाविकृतंयस्यज्ञानामिन्द्रियसम्भवम् ।
आलक्ष्येतानिमित्तेनलक्षणंमरणस्यतत् ॥ ३ ॥
मनुष्यकी दर्शनादिक संपूर्ण इंद्रियोंके तत्वको अनुमान द्वारा परीक्षा करनी चाहिये जिसको अकस्मात् अतीन्द्रिय ज्ञान इन्द्रियोंद्वारा साक्षात् होनेलगे । अथवा जिस मनुष्यके इंद्रियांका ज्ञान विनाकारणही सहस्रा विकृत होजाय तो यह लक्षण - मृत्युका पूर्वरूप है ॥ २ ॥ ३ ॥
इत्युक्तं लक्षणंसर्वमिन्द्रियेष्वशुभोदयम् । तदेवतुपुनर्भूयोविस्तरेणनिबोधत ॥ ४ ॥
इसप्रकार संक्षेपते सब इन्द्रिवेंभि होनेवाले अशुभ लक्षण कथन किये गये हैं । अब उनको ही विस्तार से वर्णन करतेहै ॥ ४ ॥
नेत्रइन्द्रियद्वारा परीक्षा ।
घनीभूतमिवाकाशमाकाशमिव मेदिनीम् । विगीतंद्युभयं ह्येतत्पश्यन्मरणमृच्छति ॥ ५ ॥
जिस मनुष्यको आकाश पृथ्वी के समान घनीभूत ( कठोर ) दिखाई देवे और पृथ्वी आकाशके समान खाली दिखाई देने लगे इसप्रकार विपरीतभाव दोनोंमें प्रतीत हो तो वह मनुष्य मृत्युको प्राप्त होताहै ॥ ५ ॥ .