________________
(८२०)
चरकसंहिता-भा० टी०। इसप्रकार गंधके विज्ञानको वर्णन करचुके अव इससे आगे रसके ज्ञानकों कथन करते हैं, जिसमकार रोगियोंके शरीरमें विधिपूर्वक रस जानना चाहिये ॥ १५ ॥
- रसज्ञान । योरस प्रकृतिस्थानांनराणांदेहसंम्भवः। .
सएषांचरमेकालविकारान्भजतेद्वयम् ॥ १६ ॥ जो रस प्रकृतिस्थ मनुष्योंकी देहमें उत्पन्न होताहे वह मरनेके समय दो प्रकारकी विकृतिको धारण करता है ॥ १६ ॥
कश्चिदेवास्यवैरस्यमत्यर्थमुपपद्यते ।
स्वादुत्वमपरश्चापिविपुलंभजतेरसः ॥ १७ ॥ कोई रस तो अत्यन्तही विरसताको प्राप्त होजाताहै और कोई अत्यन्त भारी स्वादुताको प्राप्त होजाताहै । यदि मरणके समय रसके दो भेद होते हैं ॥ १७ ॥
वमनेनानुमानेन विद्याद्रिकृतिमागतम् ।
मनुष्योहिमनुष्यस्यकथंरसमवाप्नुयात् ॥ १८ ॥ मनुष्य मनुष्य के शरीरके रसको किसप्रकार जान सकताहै सो कहते हैं कि शरीरके विकृतहुए रसको इसप्रकार अनुमानसे जाने कि मनुष्यके मरणासन्न होनेसे जब शरीरका रस विकृत होजाताहै अर्थात् बहुत बदजायका होजाताहै ॥ १८ ॥
विरसताका ज्ञान । मक्षिकाश्चैवयूकाश्चदंशाश्चमशक सह ।
विरसादपसर्पन्तिजन्तोःकायान्मुमूर्षतः ॥ १९ ॥ तो उसके शरीरपर मक्खी, जूऑ, दंश, मच्छर आदि कोई भी स्पर्श नहीं करते अर्थात् अलग होजातेहैं ॥ १९॥
मधुरताका ज्ञान । अत्यर्थरसिकंकायंकालपक्कस्यमक्षिकाः।
आपिस्नातानुलिप्तस्यभृशमायान्तिसर्वशः॥ २०॥ तथा जिसके शरीरमें कालके परिपाकसे अर्थात् मरणासन्न समयमें रस अत्यन्त सुस्वादु होजाताहै तो वह मनुष्य याद स्नान आदि कर और चंदनका लेपन करनेसे
शुद्ध भी हो तो भी उसके शरीरपर चारों ओरसे बहुतही मक्खिये, मच्छर, या . आकर पडते हैं ॥ २० ॥