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शारीरस्थान- अ०८.
(८०) सुन्दर खिलौने रखने चाहिये । वह खिलौने हलके, जिनके हाथ पावोंपर गिरजानेसे चोट न लगे तथा आगेसे पैने न हों एवं मुखमें न चुभजांय, ऐसे तीक्ष्ण न हों जो बालकके प्राणोंको लेलें या कष्ट देवें । इसप्रकारके हलके खिलौने होने चाहिये १२४ नहिअस्थावत्रासनंसाधुतस्मात्तस्मिन्नुदत्यभुञ्जानेवाअन्यत्रविधेयतामगच्छतिराक्षसपिशाचपूतनाद्यानांनामान्याह्वयताकुमारस्य वित्रासनाथनामग्रहणंनकायस्यात् ॥ १२१ ॥
वालकको कमी भी डराना नहीं चाहिये । यदि बालक रोता हो और खाता न हो वा अन्य उपद्रव करताहो तौभा उसको भयभीत नहीं करना चाहिये और उसको डराने के लिये किसी राक्षस, पिशाच, पूतना आदिका नामतक नहीं लेना चाहिये । तथा उस वालकको डरानेके लिये वह देख ! भूत आया इत्यादि शब्द कभी भी नहीं कहना चाहिये ॥ १२५॥
कुमारके रोगोंका उपचार । यदितुआतुकिञ्चित्कुमारमागच्छेत्तत्प्रकृतिनिमित्तपूर्वरूपलिङ्गपशयविशेषैस्तत्वतोनबुध्यसवीवशेषानातुरौषधदेशकालाश्रयान.. वेक्षमाणश्चिकित्सितुमारभेतैमधुरमृदुलघुसुराभिशीतसङ्ककर्म प्रवर्तयन्नवसात्म्याहिकुमाराभवन्तितथातशमलभन्तेअचिराय रोगेतुअरोगवृत्तमातिष्ठद्देशकालारमगुणविपर्ययेणवर्तमानः १२६॥
यदि बालक को किसीप्रकारको व्याधि उत्पन्न होजाय तो उस रोगकी प्रकृ. , निमित्त, पूर्वरूप, रूप; उपशयके भेदसे रोगके तत्त्वको निश्चय करके फिर रोगी
औषधी, देश, काल और याश्रय इनको विशेषरूपसे विचारकर मधुर, नरम, लघु, सुगंधित,तया शीतल द्रव्ययुक्त कर विधिपूर्वक चिकित्सा करे । इसप्रकारको धिकित्सा करना वालकोंको सात्म्य होतीहै । और इमकारकी चिकित्सासे बालकको शीन आराम होजाताहै । जब बालकको व्याधि हो तो देश, काल और शारीरिक स्वभाव देखकर उनसे विपरीत गुण करनेवाली जैसे शीतकाल में उष्ण, उष्णमें शीवलक्रिया व्याधिको शीघ्र नाश करनेके लिये युक्तिपूर्वक करना चाहिये ।। १२६॥.. क्रमेणासात्म्यानिपरिवत्योपयुञ्जानःसर्वाणिहितानिजयेत्तथा. , बलवर्णशरीरायुषांसम्पदमवाप्नोतीति ॥ १२७॥. असात्म्यद्रव्य तथा अहितका सबपदार्थाका बालकसे क्रमपूर्वक त्याग करादेना चाहियोऐसा करनेसे बालकके बल, वर्ण,शरीर और आयुकी वृद्धि होती है।। १२७॥