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शारीरस्थान - अ० ८
( ८०५ )
ष्टांवाठ्यपुष्पविष्वक्सेनकान्तामितिविभ्रत्योषधीः कुमारं प्रामुखंप्रथमं दक्षिणस्तनं पाययेदितिधात्रीकर्म ॥ ११८ ॥
जब देखे कि धांयका दूध स्वादिष्ट, बहुत और शुद्ध होगया है तब इस धापको नान कराकर चन्दनादिसे. सुशोभित करा स्वच्छ निर्मले वस्त्र पंहिना इन्द्रायण, ब्राह्मी, सफेद और हरी दूब, पाढ, हरड, आमले, नीम, बला, प्रियंगु, रेडुका, इन सब artist एक धागे में मालाके समान बांध गलेमें धारण करे फिर पूर्वकी ओर मुरखकर बालकको पहिले दाहिना स्तन पान करावे ॥ ११८ ॥ कुमारागारविधि |
अतोऽनन्तरं कुमारागारविधिमनुव्याख्यास्यामः । वास्तुविद्याकुश-लः प्रशस्तरम्यमतमस्कंनिवातंप्रवातैकदेशं दृढमपगतश्वापदपशुदंष्ट्रिमूषिक पतंगं सुसंविभक्तसलिलोलूखलमूत्रवर्चः स्थानस्नानभूमिमहान समृतुसुखंयथर्तुशयनास्तरणसम्पन्नकुर्य्यात्। तथासुविहितरक्षाविधानबलिमङ्गलहोमप्रायश्चित्तंशा चवृद्धवैद्यानुरक्तजन सम्पूर्णमिति कुमारागारविधिः ॥ ११९ ॥
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इसके उपरान्त अब बालकके रहनेका स्थान बनानेकी विधिका कथन करते हैं। उत्तम वास्तुविद्याको जाननेवाला चतुर पुरुष उत्तम इधर उधर फिरने योग्य अंधकार रहित, जिसस्थानमें अधिक वायु न आतीहो तथा एक ओर सुन्दर पवन आती भीं हो ऐसा दृढ अर्थात् पक्का मकान बनावे। जिस मकानमें कुत्ते काटनेवाले पशु, अन्य दांतोंवाले जानवर तथा हिंसक जीव, मच्छर, मूषक, पतंग आदिन व्यासकें। और उस घर में विधिपूर्वक यथास्थान जल, ऊखल मलमूत्र त्यागनका स्थान, स्नान करनेका स्थान भोजन बनानेका स्थान यथाऋतु शयन करने और बैठनेके लिये तथा बिछाने और ओटने के लिये सुखदायी वस्त्र एवं इस घर में संपूर्ण रक्षा के विधान बलिदान, मंगल कर्म, होम और प्रायश्चित्त की सामग्री तथा पवित्र, वृद्धवैद्य और बालकसे प्रीति रखनेवाले मनुष्य रहने चाहिये। इस प्रकार कुमारागारकी विधि वर्णन कीगई ॥ ११९ ॥
शयनास्तरणप्रावर गानि कुमारस्य मृदु लघु गुचिसुगन्धीनि स्यु:स्वेदमलजन्तुमन्तिमूत्रपुरीषोपसृष्टानिचवनिः ॥ १२० ॥
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: बालकके सोनेकी शय्या और विछाने के वस्त्र ओर ओढने व इल के सुन्दर