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(७८०) चरकसंहिता-मा० ट। और वातहरगोंसे सिद्धकिया घृत पिलाना चाहिये । नागोदर होजानेपर योनिव्यापद चिकित्सामें कहे फलघृतादि तथा जिन द्रव्योंसे स्निग्ध होकर वह प्रगट होनाय अर्थात् उस बालकका जन्म होजाय वैसी क्रिया करनी चाहिये । और गर्भके बढानेवाले द्रव्योंसे सिद कियेदुए दूध तथा घृत हमेशा भूखके समय देने चाहिये । तथा इस नागोदर गर्भवाली स्त्रीको सदैव पालकी आदि सवारीमें बैठाना, “स्नान कराना, उचम वातोंका सुनाना हितकर होताहै। जो गर्भ वातकारक कार'णासे रूक्ष होकर बहुत कालतक अर्थात् ग्यारहवें या बारहवें महीनेतक प्रगट न हो उसको नागोदर कहतेहैं ) ॥२८॥
प्रसुप्तगर्भ में चिकित्सा । यस्याःपुनर्गर्भप्रसुप्तोनस्पन्दतेतांश्येनमत्स्यगवयातत्तिरताम्रचूडशिखिनामन्यतमस्यसर्पिष्मतारसेनमाषयूषणवाप्रभूतसर्पिषामूलकयूषेणवारक्तशालीनामोदनंमृदुमधुरशीतभोजयेत् । तैलायंगेनास्याश्चाभीक्ष्णमुदरवंक्षणोरुकटिपार्श्वपृष्ठप्रदेशानीषदुष्णेनोपाचरेत् ॥ ५९॥ जिस स्त्रीका गर्भ सायाहुआसा स्थिर रहे और फडके नहीं उस स्त्रीको सिकस, • मछली, रोझ,तीतर,मुर्गा और मोरके मांसरसको घृतयुक्त कर पिलावे अथवा उड. दके यूषको घृतयुक्त करके या सलजमका यूष आधिक घीके संयोगसे पिलाने अथवा लाल शालिवावलोंको मिसरीके साथ वा अन्य मधुर शीतल द्रव्योंके साथ भोजनके लिये देवै । तथा किसी उत्तम उष्ण तेलद्वारा पेट, वंक्षण, पसली और “पीठको सदैव नरमहाथसे मालिश कराया करे ॥ ५९॥
उदावर्तरुद्धगर्भवतीकी चिकित्सा। यस्याःपुनरुदावर्तविबन्ध स्यादष्टमेमासेनचानुवासनसाध्यमन्यतेततस्तस्यास्तद्विकारप्रशमनमुपकल्पयेन्निरूहमुदावतोंद्युपेक्षितः सगर्भसगभौगर्भिणीवानिपातयेत् ॥ ६॥ यदि आठवें महीनेमें स्त्रीको उदावतरोगसे बंध पडजाय और वह अनुवासनवस्ति द्वारा शान्ति होता न दिखाई दे तो निरूहण बस्ति द्वारा विधिवत् चिकित्साकर्म करे क्योंकि उससमय उदावर्तकी चिकित्सा न करनेसे वह उदावर्चरोग गर्भको अथवा गर्भसाहित गर्भवती स्त्रीको भी नष्ट कर डालताहै ॥ ६॥
तत्रवीरणशालिषष्टिककुशकाशेक्षुबालिकावेतसपरिव्याधमूला