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शारीरस्थान-अ०८. (७८९) सीरनाश्वासयन्त्योवाभिग्राहिणीभिरुपदिष्टवदाभिधायिनीभिः ॥ ८॥ प्रसवकी पीडा उत्पन्न होकर जब आवीसे गर्भका जल स्त्राव होने लगे तो उस स्त्रीकों पृथ्वीपर नरम विछीहुई शय्यापर लेटनाना चाहिये और योग्य गुणोंवाली जिनका पाहिले वर्णन किया जा चुकाहै उन सब स्त्रियोंको उसके चारोंओर बैठकर मीठे २ वाक्योंसे धैय देतेहुए उसके चित्तको शान्त करते रहना चाहिये ।। ८२॥ .
साचेदावीभिःसंक्लिश्यमानानप्रजायेताथैनांबूयादुत्तिष्ठमुसलमन्यतरञ्चगृह्णीष्वाननैतदुलूखलंधान्यपूर्णमुहमुहरधिजहिमुहुन
मुहुरवजृम्भस्वचंक्रमस्वचान्तरान्तराइत्येवमुपदिशन्त्यके ॥३॥ . कोई कहते हैं कि याद वह गर्भवती प्रसववेदनासे पीडित होतेहुए भी प्रसव न करे तो उसको कहना चाहिये कि तूं उठकर बैठजा और दो मूसल या एक मूसल लेकर उखलीमें भरेहुए धानोंको कूट और वारवार हाथपावोंको हिला वारवार जंभाई ले इधरउधर फिर ।। ८३ ॥
आत्रेयजीका मत । तन्नेत्याहभगवानानेयः । दारुणव्यायामवर्जनहिगर्भिण्याः । सततमुपदिश्यते । विशेषतश्चप्रजननकालेप्रचलितसर्वधातुदोषायाःसुकुमाऱ्यांना-मुसलव्यायामसमीरितोवायुरन्तर लब्ध्वाप्राणानाहिस्यादुष्प्रतीकारतमाहितस्मिन्कालविशेषेणभवतिगर्भिणी । तस्तान्मुसलग्रहणंपरिहार्यमृषयोमन्यन्ते जम्भणञ्चंक्रमणञ्चपुनरनुष्ठेयामिति ॥ ८४॥ इसपर भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे कि ऐसा कभी नहीं करना चाहियोगर्भवती स्त्रीको दारुण परिश्रम करना किसीकालमें भी उचित नहीं है और विशेषकर प्रसबकालमें तो सव धातु और वातादि दोष शीघ्रही प्रचलित होजातेहैं । यदि सुकु. .मार स्त्री ऊखलमें धान कूटने लगेगी तो इस परिश्रमसे कुपितहुआ वायु छिद्रको
प्राप्त हो प्राणोंको नष्टकर देताहै और वह समय भी ऐसा होताहै कि चिकित्सा 'करनेमें वडीभारी कठिनाई पडतीहै। उससमय किसीप्रकारका उपद्रव होजानेसे उसकी
शान्ति नहीं होती।इसलिये ऋषिलोग मूसल लेकर धान कूटना उचित नहीं समझत किन्तु जंभाईलेना और इधर उधर टहलना यह क्रम अच्छा प्रतीत होताहै ॥८॥