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चरकसंहिता - मा० टी० । प्रसूताका रोगावस्थामें उपाय । - तस्यास्तुखलुयोव्याधिरुत्पद्यते सकृच्छ्रसाध्यो भवत्यसाध्योवा । गर्भवृद्धिक्षयितशिथिल सर्वशरीरधातुत्वात्प्रवाहण वेदना क्लेदन रक्तं-" निःसृतिविशेषशून्यशरीरत्वाच्चतस्मात्तांयथोक्तेनविधिनोपचरेद्रोतिकजीवनीय बृंहणीयमधुरवात हर सिद्धैरभ्यङ्गोत्सादन परिषेकावगाहनान्नपानविधिभिर्विशेषतश्चोपचरेद्विशेषतो हिशून्यशरीराः खियः प्रजाताभवन्ति ॥ १०३ ॥
यदि प्रसूता स्त्रीको किसीमकारकी व्याधि उत्पन्न होजाय तो वह व्याधि कष्टसाध्य अथवा असाध्य होजाती है । क्योंकि उससमय गर्भके वढने के कारण स्त्रीका शरीर और संपूर्ण धातुएँ क्षीण और शिथिल होती हैं और प्रसव के समय प्रसूतकी पीडा और शरीर से क्लेद और रक्त के निकलजानेसे शरीर और भी विशेषरूप से शून्य हो जाता है । इसलिये सावधान होकर प्रभूतके समय पूर्वोक्त विधिका पालन करे । और विशेषकर भूतनाशकगण, जीवनीयगण, बृंहणीयगण और वातनाशक द्रव्योंसे सिद्ध किये तैलकी मालिश, उत्सादन, परिषेचन अवगाहन और अन्नपानोंका उपयोग करे। क्योंकि प्रसव होने से स्त्रियोंका शरीर विशेषरूपसे शून्य (खाली) होता है ॥ १०३ ॥
बालक होनेपर दशमादेनकी विधि |
- दशम्यांनिश्यतीतायां सपुत्रास्त्रीसर्वगन्धौषधैगौर सर्षपलोत्रैश्चस्नातालध्वहतवस्त्रं परिधायपवित्रेष्ट लघुविचित्रभूषणवतीसंस्पृश्यमङ्गलान्युचितामर्चयित्वाचदेवतांशिखिनःशुक्लवाससोव्यङ्गाश्वब्राह्म
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णान्स्वस्तिवाचयित्वाकुमारमह तेनशुचिवाससाच्छादयेत् । प्राक् शिरसमुदशिरसंवासंवेश्यदेवतापूर्वंद्विजातिभ्यः प्रणमतीत्युक्त्वा कुमारस्य पिताद्वे नामनी कारयेत्नाक्षत्रिकंनामाभिप्रायिकञ्च । तत्राभिप्रायिकंनामघोषवदाद्यन्तस्थान्तमूष्मान्तञ्चवृद्धंत्रिपुरुषान्तरमनवप्रतिष्ठितम् । नाक्षत्रिकन्तुनक्षत्र देवतासंयुक्तं कृतं द्वयक्षरंचतुरक्षरंवा ॥ १०४ ॥
दशरात्रि व्यतीत होनेके अनन्तर ग्यारहवें दिन प्रसूता स्त्री और उस बालकका