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चरकसंहिता - भा० टी० ।
नुनादीगम्भीरसमुत्थोधीरः स्वरः। नातिस्थूलाना तिकृशौविस्तारो - पपन्नावास्यप्रच्छादनौरक्ता वोष्ठा । महत्यौहनूवृत्तौना । तमहतीग्री: वाव्यूढमुपचितपुरोदृढं जत्रुपृष्ठवंशश्च । विकृष्टान्तरौ स्तनाअंसपातिनस्थिरेपाश्चैवृत्तपरिपूर्णाायतौबाहु सक्थिनी अंगुलयश्च महदुपचितंपाणिपादम् । स्थिरावृत्ताः स्निग्धास्ताम्रास्तुङ्गाः कूर्माकाराः करजाः । प्रदक्षिणावर्त्तासोत्सङ्गाचनाभिः । नाभ्युरास्त्रे भागहीना समासमुपचितमां साकटवित्तौस्थिरोपचितमांसौनात्युन्नतौनात्यवनतौस्फिचावनुपूर्ववृत्तौ उपचययुक्तावूरू। नात्युपचितनात्यपचिएर्णापदेप्रगूढशिरास्थिसन्धीज े | नात्युपचितौनात्यपचितौगुल्फौ पूर्वोपदिष्टगुणौ पादौ कूर्माकारौ । प्रकृतियुक्तानिवातमूत्रपुरीषगुह्यानितथास्वप्नजागरणायासस्मितरुदितस्तनग्रहणानि यच्चकिञ्चिदन्यदपि अनुक्तमस्तितदापि सर्वप्रकृतिसम्पन्नमिष्टंविपरीतंपुनरनिष्टमितिदीर्घायुर्लक्षणानि ॥ १०५ ॥
नामकरण करनेके अनन्तर उस वालककी आयुका प्रमाण जानने के लिये उसकी परीक्षा करे। उनमें दीर्घजीवी अर्थात् दीर्घायु होनेवाले वालकों के यह लक्षण होते हैं । जैसे सिरके वाल अलग २ नरम, चिकने, थोडे, काले और दृढ, बद्धमूल, अच्छे होते हैं वा स्थिर और पुष्ट उत्तम होती है । शिर स्वभावसेही सुन्दर आकारका प्रमाणसे किंचित् बडा, सुन्दर, लक्षणोंवाला, अनुरूप, तथा छत्रके समान उत्तम होता है । ललाट विशाल, दृढ, सुडौल, सुन्दर, उत्तम कनपटियोंकी संधियुक्त, कुछ ऊँचा और कुछ ढला हुआसा उत्तम आकारवाला उपचित, वलियुक्त और अर्धचन्द्र के समान आकारवाला होना श्रेष्ठ होता है। दोनों कान पुष्ट, कानोंके पीछेका भाग विपुल और सुडौल तथा दोनों कान ऊंचे नीचे समान और पीछेको नवेहुएसे दोनों कर्णपुष्टि तथा कानों के छिंद्र अर्थात कोकरू बडे होना श्रेष्ठ माने जाते हैं। भौहें लंबी परस्पर मिलीहुई एकसी घनकी और बडीर होना उत्तम होता है। दोन नेत्र एकसे देखने वाले सुडौल, अलग २ सीधे, तेजयुक्त, पलक आदि सुन्दर उपांगयुक्त उत्तम होते हैं । नाक, सुडौल, लम्बी श्वासयुक्त, लम्बे बांसवाल, कुछ कुछ आगेको झुकी हुई उत्तम होती है । मुख बडा सुडौल, सुन्दर जिसके दोनों ओर सुन्दरतायुक्त हो तथा दैतपंक्ति सुन्दरतायुक्त हो वह मुख उत्तम होता है । जिह्वा
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