Book Title: Charaka Samhita
Author(s): Ramprasad Vaidya
Publisher: Khemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai

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Page 849
________________ शारीरस्थान - अ०.८. तार्श्वनांयथोक्तगुणाः स्त्रियोऽनुशिष्युरनागतावीर्माप्रवाहिष्ठाः याह्मनागतावीः प्रवाहयते व्यर्थमेवास्यास्तत्कर्म भवति । प्रजा चास्या विकृतिमापन्नाच श्वासकासशोषष्ठीहप्रसक्तावाभवतिय . (७९१) याहिक्षवथूगारवातमूत्रपुरीषवेगान्प्रयतमानोऽप्यप्राप्तकालानं लभते कृच्छ्रेणव्याप्यवाप्नोतितथानागतकालंगर्भमपिप्रवाहमा - णायथाचैषामेवक्षवश्वादीनां सन्धारणमुपघातायोपपद्यते तथा प्राप्तकालस्य गर्भस्याप्रवहणमिति । सायथानिर्देशं कुरुष्वेतिव क्तव्यास्यात् । तथाचकुर्वतीशनैः शनैः पूर्वप्रवाहेत ततोऽनन्तरं बलवत्तरामतितस्याञ्चप्रवाहमाणायांस्त्रियः शब्दं कुर्युः प्रजाताप्रजाताधन्यधन्यंपुत्रामतितथास्या हर्षेणाप्यायन्तेप्राणाः ॥ ८८ ॥ यदि उससमय बालक प्रगट न हो तो यथोक्त गुणसंपन्न खिये इस गर्भवती स्त्रीको कहें कि यदि इससमय तुम्हारे प्रसवकी पीडा न होती हो तो अधिक जोर लगाकर ढकेलने में यत्न मत कर। क्योंकि प्रसव वेदनाके विनाही जो स्त्री गर्भको ढकेलनेके लिये यत्न करती है तो वह इसका यत्न व्यर्थही जाताहै । और इसकी संतान भी विकृतिको प्राप्त होजाती है । अथवा उस स्त्रीको विकृति होकर श्वास, खांसी, राजयक्ष्मा और प्लीहा रोग उत्पन्न होजाता है । जैसे-छींक, डकार, कात, मूत्र, पुरीष इनका वेग यत्न करनेपर भी विना समय नहीं होसकता अर्थात विना समय पेटको कितनाही दबा दिया जाये परन्तु कभी मल, मूत्र नहीं आता उसीप्रकार विना प्रसव के समय उपस्थित होनेके कितनेही जोरसे प्रसव होनेका यत्न किया जाय परन्तु वह अपने समयके बिना प्रगट नहीं होता। वैसेही आयेहुए छौंक आदि वेगोंको रोकने से जिस प्रकार रोगादि उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार प्रसवकाल प्राप्त होनेपर उसको निकालनेका यत्न न करनेसे भयंकर परिणाम होता है । समीपवाली स्त्रियोंको गर्भवतीसे कहना चाहिये कि जिसतरह हम कहें उसीप्रकार तुम करना । और उस गर्भवतीको भी उनकी आज्ञानुसार करना चाहिये। फिर प्रसव वेदना उपस्थित होने पर उसको धीरे २ बालक बाहरको ढकेलना चाहिये। जब बालक प्रकट: होते हुए उसके शरीर में वालकके प्रगट होने की योनिमें पीडा होनेसे व्याकुलता उत्पन्न होनेलगे तो उससमय उसकी समीपवाली सब खिये कहें कि धन्य है धन्य लड़का पैदा हुआ है। लडका पैदा हुआ है। ऐसा कहनेसे उस स्त्रीके शरीरमें हर्ष उत्पन्न कर प्राण प्रफुल्लित होजाते हैं ॥ ८८ ॥

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