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(७९०) चरकसंहिता-मा दी।
· प्रसवकालमें औषध। . अथास्यदद्यात्कुष्ठ्ठलालाङ्गलिकीवचाचित्रकाचरविल्वचूर्णमुपधातुंसातन्मुहुर्मुहुरुपाजप्रेत् । तथाभूर्जपत्रधूमशिंशपासारधूमं तस्याश्चान्तरान्तरा । कटिपार्श्वपृष्ठसक्थिदेशादीषदुष्णेनतेले- .. नाभ्यज्यानुसुखमवमृगीयादित्यनेनतुकर्मणागर्भोऽवाक्प्रतिपाद्यते । सयदाजानीयाद्विमुच्यहृदयमुदरमस्यास्त्वाविशतिबस्तिशिरोऽवगृह्णातित्वरयान्तएनामाव्यःपरिवर्ततेअस्याअवाग्गर्भइत्यस्यामवस्थायांपर्यकमेनामारोप्यप्रवाहितमुपक्रमेत कर्णेचास्यामन्त्रमिममनुकूलास्त्रीजपेत् ॥ ८५॥ ऐसे समय गर्भवती स्त्रीको कूट,इलायची,लागुलीकंद, वच,चित्रक और कंजेका चूर्ण कर वारंवार संघाना चाहिये ।तथा भोजपत्रकी और शीशमकी गोंदकी धूनी थोडे थोडे देरके बाद योनिमें देनी चाहियोतथा कमर, दोनों पसवाडे, पीठ और. नितम्ब आदि स्थानोंको मुखोष्ण तैल लगाकर धीरे २ मालिश करना चाहिये। ऐसा करनेसे गर्भकी नीचेकी ओर प्रवृत्ति होजातीहै । जब ऐसा प्रतीत हो कि गर्भ हृदयकी ओरसे पेटमें आय गयाहै और योनिद्वारमें पहुंचनाही चाहताहै और प्रस. वकी वेदना अत्यंत शीघ्र शीघ्र होने लगती है तव जानना कि इसका गर्भ अधोमुख होकर, बाहर आनाही चाहता है तो इसको शय्यापर बिठाकर कहे कि तू अव भीत. रसे गर्भको बाहर ढकेलनेका यल कर और इधर उधरसे मालिशपूर्वक नरम हाथसे उस गर्भके बाहर निकालनेका यत्न कराना चाहिये।जब देखे कि अव बालक प्रगट होनेहीवाला है तो योग्य स्त्री उसके कानमें यह मंत्र पढे ॥ ८५ ॥
प्रसवकालका मंत्र। (क्षितिर्जलंवियत्तेजोवायुर्विष्णुःप्रजापतिः । सगर्भात्वांसदा पान्तुवैशल्यञ्चदिशन्तुते॥८६॥ प्रसुवत्वमविक्लिष्टमविक्लिष्टा- .. शुभानने ! । कार्तिकेययुतिपुत्रकार्तिकेयाभिरक्षितमिति ॥८॥ ८६ और ८७ का श्लोक मंत्र है। इस मंत्रका यह अर्थ है । हे गर्भवती स्त्री ! पृथ्वी, जल, आकाश,तेज,वायु, विष्णु,और प्रजापति यह तुम्हारी सदा रक्षा करें। और तुम्हारे गर्भ में किसी प्रकारका उपद्रव न होने देवें । हे शुभानने !तू क्लेशरहित पुत्रको उत्पन्न कर तथा स्वामी कार्तिकके समान कान्तिवाला और स्वामीकात्ति: कसे अभिरक्षित पुत्रको प्रगट कर ॥ ८६ ॥ ८७॥