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शारीरस्थान-अ० ८.. (७८३) " इसके उपरान्त उस स्त्रीको वृहण वलकी रक्षा करनेवाली स्नेहयुक्त यवागू पिलानाः चाहिये। फिर यथाक्रम विलेपी अथवा : उस समय, जो उचित हो उस रस या, आहारका सेवन कराना चाहिये । जबतक उस स्त्रीके शरीरमें दोष और धातुओंके: क्लेद उत्पन्न न हाजांय तबतक स्निग्ध हलके और वलकारक आहारोंसे उसकी रक्षा करनी चाहिये ॥६६॥
अतःपरंस्नेहपानर्वस्तिाभराहारविधिभिश्चदीपनीयजीवनीयबृ- . हणीयमंधुरवातहरसमाख्यातैरुपचारैरुपाचरेत् ॥ ६७ ॥ इसके उपरान्त स्नेहपान द्वारा एवं स्नेहनवस्तिद्वारा तथा दीपनीय, जीवनीय, बृंहणीय और मधुर तथा वातनाशक आहार द्वारा उपचार करना चाहिये ।। ६७ ॥
परिपक्वगर्भशल्यायाःपुनर्विमुक्तगर्भशल्यायास्तदहरेवस्नेहोपचारःस्यात् ॥ ६८॥ यदि गर्भ पूरे दिनोंका पूर्णाग होकर मरे तो उस गर्भके निकालनेके अनन्तर उसी दिन स्नेहद्रव्योंसे उपचार करना चाहिय ॥ ६८॥
परमतोनिर्विकारमाप्यायमानस्यगर्भस्यमासेमालेकोपदे. क्ष्यामः ॥ ६९ ॥
अब इसके उपरान्त जिसमकार गर्भ निर्विकार होकर वृद्धिको प्राप्त हो उस प्रकार प्रथम महीने से लेकर महीने २ जो कर्म करना चाहिये उनका उपदेश
गर्भकी मासपरत्वरक्षणविधि ।। प्रथमेमासेशङ्किताचेदर्भमापन्नाक्षीरमनुपस्कृतमात्रावच्छोतं कालेपिवेत्सात्म्यश्चभोजनंसायंप्रातश्वभुञ्जीत ॥ ७०॥ प्रथम महीनेमें जब स्त्रीको यह प्रतीत होजाय कि गर्भ रहगया तो विना औषधीसे केवल दूध मात्र, शीतल उचित मात्रासे पीयाकरे । और प्रातः तथा सायंकाल दोनों समय साम्य भोजनको कियाकरे ॥ ७० ॥ द्वितीयेमालेक्षीरमेवचमधुरौषधसिद्धम् । तृतीयेमासेक्षीरंमधु
सर्पिामुपसंसृज्या चतुर्थेमासेतुक्षीरनवनीतमक्षमात्रमश्नी। यात् । पञ्चमेमासेक्षीरसर्पिः। षष्ठेमालेक्षीरसर्पिर्मधुरोषधसि. ...तदेवसप्तमेमाले ॥७१॥