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चरकसंहिता-भा० टी०। . तत्रमलभूतास्तेशरीरस्ययेबाधकराःस्युस्तद्यथाशरीरच्छिद्रेषुउ. पदेहाःपृथग्जन्मानोबहिर्मुखाःपरिपक्वाश्चधातवः । प्रकुपिताश्चवातपित्तलेष्माणोयेचान्येऽपिकचिच्छरीरेतिष्ठन्तिभावाः शरीरस्योपघातायोपपद्यन्तेसर्वांस्तान्मलान्संप्रचक्ष्महे.। इतरांस्तुप्रसादेगुर्दादींश्चद्रव्यान्तान्गुणभेदेनरसादींश्चशुक्रान्तान्द्र. व्यभेदेन ॥ १९॥ शारीरिक धातुएं सामान्यतासे दो प्रकारको होती हैं। १ मलभूत २ प्रसादभूत उनमें जो शरीरको वाधा करनेवाली हैं उनको मलभूत धातु कहतेहैं । वह इस प्रकार हैं । जैसे-शरीरछिद्रों में भरा हुआ क्लेद और जो शरीरसे पृथक् उत्पन्न होनेवाले हो अर्थात् शरीरमें न मिलकर फोकट रूपसे अलग निकल जानेवाली हों और परि. पाकको प्राप्त हो अपने छिद्रोद्वारा वाहर निकल जानेवाली हों विष्ठाआदि) इनको मल कहते हैं तथा कुपित हुए वात, पित, कफ और इनके सिवाय भी जो शरीरको बिगाडनेवाले भाव है उन सबको मलभूत धातु कहते हैं । इनके सिवाय गुरु आदि गुणसे लेकर द्रव पर्यन्त गुण भेदसे, और रससे लेकर शुक्रपर्यन्त द्रवभेदसे सब धातुयें प्रसादसंज्ञक होती हैं ॥ १९ ॥
तेषांसर्वेषामेववातपित्तश्लेष्माणोदुष्टादूषयितारोभवंतिदोषत्वाद्वातादीनांपुनर्धात्वन्तरेकालान्तरेप्रदुष्टानांविविधाशितपीतीयेऽध्यायेविज्ञानान्युक्तानिएतावत्येवदुष्टदोषगतिविसंस्पर्शना. • च्छरीरधातूनाम् । प्रकृतिभूतानान्तुखलुवातादीनांफलमारो
ग्यंतस्मादेषांप्रतिभावेप्रयतितव्यंबुद्धिमाद्भः ॥२०॥ उन सब धातुओंकोही दुष्ट हुए वात, पित्त, कफ दूषित करनेवाले होतेहैं । दोष होनेसे वातादिकोंद्वारा जो संपूर्ण धातु दूषित होकर जिन २ लक्षणों को धारण करती हैं वह सब विविधाशितपतिीयाध्यायमें विशेषरूपसे कथन कर चुकेहैं।दोष दुष्ट होकर शरीरकी धातुओंको संस्पर्श करतेही दूषित करदेतेहैं । जब यह वातादि दोष अपनी प्रकृतिमें स्थिर रहें तो इनका फल आरोग्यता होताहै । इसलिये बुद्धिमान, दोषोंको प्रकृतिस्थ रखनेमें यलवान् रहते हैं ॥ २०॥
पूर्णवैद्यके लक्षण । 1 सर्वदासर्वथासर्वशरीरंवेदयोभिषक् । 1. आयुर्वेदसकात्स्न्ये नवेदलोकमुखप्रदम् ॥ २१॥ .. ;