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(७४६). चरकसंहिता-मा० टी०। तद्यथा--शुक्रक्षयेक्षीरसर्पिषोरुपयोगोमधुरस्निग्धसमाख्याता नाश्चापरेषामेवद्रव्याणाम् मूत्रक्षयेपुनरिक्षुरसवारुणीमण्डद्र वमधुराम्ललवणोपवेदिनाम् । पुरीषक्षयेकुल्माषमाषकष्मा . ण्डाजमध्ययवशाकधान्याम्लानाम् । वातक्षयकटुतिक्तकषायरूक्षलघुशीतानाश्च । पित्तक्षयेम्ललवणकटुकक्षारोष्णतीक्ष्णानाम् ।श्लेष्मक्षयस्निग्धगुरुमधुरसान्द्रापिच्छिलानांद्रव्या.णांकापिचयद्यद्यस्यधातोवृद्धिकरंतत्तदनुसेव्यम् ॥ १३ ॥ वह इसप्रकार जानना । जैसे शुक्रके क्षीण होनेपर दूध, घृतका उपयोग करना, मधुर तथा चिकने एवम् अन्य वीर्यवर्द्धक पदार्थों का सेवन करना उचित है।मूत्रक्षय होनेपर ईखका रस, वारुणी, मण्ड तथा पतले और मधुर,अम्ल,लवण,एवम् मूत्रके लानेवाले अन्य पदार्थ सेवन करने चाहिये । मलके क्षय होनेपर कुल्माष (मटर) उडद, कूष्माण्ड,बडी सेमफली, यव, शाक, धान्याम्ल सेवन करना चाहिये।वातके क्षीण होनेपर कडुवे, चरपरे, कसैले, रूक्ष, हलके तथा शीतल द्रव्य सेवन करना चाहिये । पित्तके क्षय होनेपर खट्टे, नमकीन, चरपरे, क्षार, उष्ण तथा तीक्ष्ण द्रव्योंका सेवन करना चाहिये । कफ के क्षीण होनेपर निग्ध, भारी, मधुर, सान्द्र पिच्छिल द्रव्योंका सेवन करना चाहिये । इसी प्रकार जो कर्म भी जिस २ धातुको वढानेवाला हो उसका सेवन करना चाहिये ॥ १३॥
एवमन्येषामपिशरीरधातूनांसामान्यविपर्ययाश्यांवृद्धिहासौ यथाकालंकाविति । सर्वधातूनामेकैकशोऽतिदेशतश्चवृद्धिहासकराणिव्याख्यातानिभवन्ति ॥ १४ ॥ एवम् अन्य भी जो शरीरकी धातुएँ हैं उनके समान और विपर्यय करनेवाले द्रव्योंसे धातुओंका वृद्धि और हास होताहै। उनसबका धातुओंको साम्य रखनेके लिये यथासमय सेवन करना चाहिये । इसप्रकार संक्षेपसे संपूर्ण धातुओंके वृद्धि और हास करनेवाले भावोंका एकएक करके वर्णन कियागयाहै ॥ १४ ॥ कुत्तशरीरपुष्टिकरास्त्विमेभावाःकालयोगःस्वभावसिद्धिराहार- . सौष्ठवमविघातश्चोतबलवृद्धिकरास्त्विमेभावाभवन्ति । तयथा- . बलवत्पुरुषेदेशेजन्मबलवत्पुरुषेचकाले ..। सुखश्चकालयोगो ...