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शारीरस्थान-अ०६.
(७४९) यहांपर श्लोक हैं । जो वैद्य सवमकारसे सबकालमें संपूर्ण शरीरके संपूर्णभावोंकों यथावत् जानताहै वह लोकको सुख देनेवाले आयुर्वेदको संपूर्णरूपसे जानताहै॥२१॥
तमेवमुक्तवन्तंभगवन्तमात्रेयमग्निवेशउवाच । श्रुतमेतद्यदुकंभगवताशरीराधिकारेवचः। किन्नखलुगर्भस्याङ्गंपूर्वमभिनिवर्ततेकुक्षौकुतोमुखकथंवाचान्तर्गतस्तिष्ठति । किमाहारश्चवतयतिकथंभूतश्चनिष्कामतिकैश्वायमाहारोपचारैर्जातस्त्वव्याधिरभिवर्द्धतेसोहन्यतेकैःकथञ्चास्यदेवादिप्रकोपनिमित्ताविकाराउपलभ्यन्तेआहोस्विन्नकिश्चास्यकालाकालमृत्योर्भावाभावयोर्भगवानध्यवस्यति । किञ्चास्यपरमायुःकानिचास्यपरमायुषेनिमित्तानीति ॥ २२ ॥ इसप्रकार कहतेहुए भगवान् आत्रेयजीसे अग्निवेशकहनेलगे कि हेभगवन् ! शरीरसंबंधी जो विषय आपने कथन कियाहै वह हमने श्रवण किया । अब कृपा कर यह कथन कीजिये कि गर्भका प्रथम कौनसा अंग उत्पन्न होताहै और गर्भमें बालक फिसओर मुखकरके किस प्रकार गर्भाशयके भीतर रहताहै । और क्या आहारकर जीताहै,किसप्रकार निकलताहै,कैसे आहार और उपचारके होनेसे आरोग्य रहकर वृद्धिको प्राप्त होताहै । किन कारणोंस शीघ्र नष्ट होजाताहै । देव आदिकोंके कोपसे उत्पन्न हुए विकार कैसे जाने जातेहैं । हे भगवन् ! आप इसके काल और अकालमृत्युके भाव और अभावका क्या निश्चय करतहो अर्थात् भावाभावमें कौनसी अकालमृत्यु और कौनसी कालमृत्यु होती है तथा उनके कारण क्या है । इसकी परमआयु कितनी है और उसक निमित्त क्या हैं ॥ २२ ॥
तमेवमुक्तवन्तमग्निवेशंभगवानपुनर्वसुरात्रेयउवाच। पूर्वमुक्तमेतद्गर्भावक्रान्तीयथायमाभिनिवर्ततेकुक्षीयञ्चास्ययदासन्तिष्ठतेऽङजातम् । विप्रतिपत्तिवादास्त्वत्रबहुविधाःसूत्रकारिणामृषीणांसन्तिसर्वेषांतानपिनिबोधउच्यमानान् । शिरःपूर्वमभिनिर्वततेकुक्षावितिकुमारशिराभरद्वाजः पश्यतिसन्द्रियाणांतदाधिष्ठानमितिहृदयमितिकाङ्कायनोबाहीकभिषक्चेतनाधिष्ठानत्वात् । नाभिारतिभद्रकाप्यआहारागमतिरुत्वा पक्कगुदमितिभद्रशौनकोमारुताधिष्ठानत्वात् । हस्तपादमितिबडि- :