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မြင်း
- चरकसंहिता - मा०टी० ।
'अव गर्भके मनके विषयमें श्रवण करो जैसे माता और पिताका गर्भाधानके समय जैसा मन होता है वैसाही संतानका भी मन होता है । तथा गर्भवती स्त्री जिसप्रकार के नित्यम्प्रति कथा आदि श्रवण किया करे और जिसप्रकारके कमोंमें चित्त लगाय रक्खे प्रायः गर्भका मन उसीप्रकारका होता है ॥ २५ ॥
यथोक्तेन विधिनोपसंस्कृतशरीरयोः स्त्रीपुरुषयोस्तु मिश्रीभाव - · मापन्नयोः शुक्रं शोणितेन सहसंयोगे समेत्या व्यापन्नमव्यापन्नेनं योनावनुपहतायामप्रदुष्टे गर्भाशये गर्भमभिनिर्वत्र्त्तयति एकान्तेनं । यथानिर्मले वाससी सुपरिकल्पतेरञ्जनं समुदितगुणमुपनिपाता देवरागमभिनिर्वर्त्तयतितद्वत् । यथावाक्षीरं दध्नाभियुतमभिषवणाद्विहायस्वभावमापद्यते दधिभावंशुकं तद्वत् ॥ २६ ॥ पूर्वोक्त विधि संस्कार किये हुए शरीरोंवाले खोपुरुषोंका जब विधिवत् आपसमें संयोग होता है तब दोषरहित पुरुषके वीर्य और स्त्रीके रजका संयोग होकर गर्भ उत्पन्न होजाता है। यदि योनिमें किसी प्रकारका विकार न हो और गर्भाशय शुद्ध हो यम् रजवीर्य भी निर्दोष हों तो अवश्यही स्त्री गर्भको धारण कर लेती है । जैसे निर्मल वस्तु में जिस प्रकारका रंग चढाना चाहते हो उसीप्रकारका रंग वस्तुको रंगमें डाल ही चढजाता है । उसीप्रकार शुद्ध शुक्र और रजके संयोगसे गर्भाशय झट गर्भकों धारण कर लेता है । जैसे दूध दहीके साथ मिलजानेसे अपने स्वभावको छोड दही के मनुरूप होजाता है उसी प्रकार वीर्य भी शुद्ध रजके संयोगसे गर्भाशय में प्राप्त हो गर्भको प्रगट कर देता है ॥ २६ ॥
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एवमभिनिर्वर्त्तमानस्यगर्भस्यतुस्त्रीपुरुषत्वेहेतुः
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पूर्वमुक्तः॥२७॥ इसप्रकार गर्भके उत्पन्न करनेमें जिसप्रकार के स्त्रीपुरुष होने चाहिये सो पहिले कथन कर चुकेहैं ॥ २७ ॥
यथाहिबीजमनुपतप्त मुसंस्वांस्वां प्रकृतिमनुविधीय क्षेत्रीहिर्वात्री : हित्वंय वोवायवत्वं तथास्त्रीपुरुषावपियथोक्तं हेतुविभागमनुविधीयते ॥ २८ ॥
जैसे जोर बीज बोया जाय वह अपनी अपनी प्रकृतिकै अनुरूप उत्पन्न होता है । जैसे धानका बीज धानको उत्पन्न करता है | यवसे यव उत्पन्न होता है और वह भी बीज, पृथ्वी तथा समय के अनुरूप होता है उसीप्रकार स्त्रीपुरुषों के बीजके अनुरूप संतान होती ह ॥ २८ ॥