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घरकसहिन-मा. टी.। येन्नरकमवसेचयेत् ।सर्वकालञ्चनास्थापनमनुवासनवाकु
दिन्यत्रात्ययिकादचाः । अष्टममासमुपादायवमनादि- . : साध्येषुपुनर्विकोरषुआत्ययिकेषुमृदुभिर्वमनादिभिर्वोपचारः
स्यात् ॥ ४६॥ यदि गर्भवती स्त्रीको किसीप्रकारका रोग उत्पन्न होनायवो वैधको चाहिये कि नरम, मधुर, शीवल, सुखदायक और सुकुमार औषषियोंसे विधिवत् चिकित्सा करे और गर्भवतीको वमन,विरेचन,शिरोविरेचन तथा रक्तमाक्षण कभी न करावे।
और गर्भकी सब अवस्थामें आस्थापन बस्ति तथा अनुवासन बस्ति भी.न करावे -यदि कोई शीघ्र पाणनाशक व्याधि उपस्थित न हो जब गर्भके आठवें महीनेमें प्राप्त होनेपर याद कोई ऐसा विकार हो कि जिसमें बमनादिकोंके विना प्राणही न बच सकतेहों तो युक्तिपूर्वक बहुत नम्र और हितकारी औषधियों द्वारा नरम -वमनादि उपचार करें ॥ ४६॥
. गर्भिणीके उपचारमें मुख्य कर्म । पूर्णमिवतैलपात्रमसंक्षोभ्याऽन्तर्वलीभवत्युचपा ॥४७॥ जिसपकार सैलसे मुखपर्यन्त पूर्ण भराहुया पात्र इधर उधर उठाने धरनेमें ‘उसके मिरनका भय रहताहै उसीप्रकार थोडी भी असावधानी और आहत उप-चार होनेसे गर्भके गिरनेका भय रहताहै ॥ १७ ॥ . साचेदपचाराद्वयोस्त्रिषुमासेषुपुष्पंपश्येन्नास्यागर्भःस्थास्यती
तिविद्यात् । अजातसाराहितस्मिन्कालेभवन्तिगर्भाः॥१८॥
यदि किसी कुपथ्यके करनेसे गर्भवतीको दूसरे या तीसरे महीनेमें मासिकऋतुके -समान रक्तस्त्राव होने लगे तो उसको वह गर्भ नहीं रहसकता क्योंकि इसकालतंक गर्भ साररहित होताहै । इस लिये कुपथ्य आदिसे शीघ्र स्राव होजात है ॥ ४८ ॥
साचेचतुष्प्रभृतिषुमासेषुक्रोधशोकासूयेभियत्रासव्यवायव्यायामसंक्षोभसन्धारणविषमाशनशयनस्थानक्षुत्पिपासाद्यतियोगात्कदाहाराद्वापुष्पंपश्येत्तस्यागर्भस्थापनविधिमुपदे- . ' क्ष्यामः॥४९॥ यदि गर्भपतीखी चौथे आदि महीनों में क्रोध, शोक अथवा असूया,ईर्षा,भय, त्रास, मैथुन, परिश्रम, संक्षाभ, वेगावरोध, विषमाशन और विषमरीतिसे शयन तथा विषमभावसे विषम स्थानों में रहे एवं आधिक भूख प्यासके समय अधिक