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चरकसंहिता-भा० टी०। पवादंयथोक्तंसगवतालोकपुरुषयोः सामान्यंकिन्तुअस्यसामान्योपदेशस्यप्रयोजनमिति ॥ ५॥
इसप्रकार कथन करतेहुए भगवान् आत्रेयजीसे अग्निवेश कहने लगे कि हे भग. • वन् ! आपने जिसप्रकार जगत् और पुरुषकी समानताको वर्णन कियाहै यह
सर्वथा यथार्थ है और निर्विवाद है । परन्तु इन दोनोंकी समानता वर्णन करनेसे -यहां आयुर्वेदमें क्या प्रयोजन सिद्ध हुआ सो कृपा कर वर्णन कीजिये ॥ ५॥
आत्रेयजीका उत्तर । भगवानुवाच । कथमग्निवेश! सर्वलोकमात्मन्यात्मानञ्चसर्वलोकेसमनुपश्यतस्तस्यात्मबुद्धिरुत्पद्यतेइति । सर्वलोकहिआत्मनिपश्यतोभवतिआत्मैवसुखदुःखयोः कर्त्तानान्यइतिकर्मा स्मकत्वाच्च । हेत्वादिभिरयुक्तसर्वलोकोऽहमितिविदित्वाज्ञानं पूर्वमुत्थाप्यतेऽपवर्गायेति ॥६॥
आत्रेयजी कहनेलगे कि हे अग्निवेश! जो मनुष्य सम्पूर्ण जगत् के भावोंको अपने “शरीरमें देखता है और अपने शरीरके सम्पूर्णभावोंको जगत्में देखता है उस मनु · व्यको आत्मबुद्धि उत्पन्न होजातीहै,सम्पूर्णजगत्को आत्मामें देखता हुआ आत्मा : ही सुखदुःखका कर्ता है और कोई कर्ता नहीं है। क्योंकि कर्म आत्माही करता है। सम्पूर्ण हेतु आदिकोंसे आत्मा अलग है केवल कर्मवंशसे जगत् में मिलाहुआ है। कर्मक्षय होनेसे आत्मा इन सब भावोंसे अलग होजाताहै । इसप्रकारका ज्ञान उत्प. न होकर में इन संपूर्णभावों से अलग हूं यह ज्ञान उत्पन्न होजाताहै और साक्षात् आत्मज्ञान प्राप्त होजानेसे मोक्षको प्राप्त होजाताहै ॥ ६॥
तत्रसंयोगापेक्षीलोकशब्दःषड्धातुसमुदायाहिंसामान्यतःसवलोकातस्यहेतुरुत्पत्तिवृद्धिरुपप्लवोवियोगश्च । त–हेतुरुत्पत्तिकारणमुत्पत्तिर्जन्मवृद्धिराप्यायनमुपप्लवो दुःखागमः षड्धातु
१ सर्वलोकमात्मनि पश्यत इति आत्मनोऽभेदेन पश्यतः आत्मशन्दे षड्धातुसमुदायात्मकः पुरुप इहोच्यते । यत्किञ्चिल्लोकगत सुखदुःखजनकं तदप्यात्मस्वरूरमित्यनेने वाह्यलोकभूतमप्यात्मकृतमेव वैषयिकं नित्यदुःखानुयुकं सुखं हेय, तथा निसर्गाद्वयं दुःखश्च पश्यन् रागद्वेधीनर्मुकः सन् सत्यज्ञानवान् भवति अथ सत्यज्ञानस्यादावरवर्गानुष्ठानप्रयोजनमिति । २ कमर्वशः सन् देवादिभियुक्तोऽयमात्मा प्रवर्तते, कर्मातत्वज्ञानात् प्रवृत्त्युरमे सति कारगाभावानोरायो । तद त्वंसिककर्मक्षया आत्यंतिककर्मफलामावरून मोक्षा भवतीति भाव:1