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- शारीरस्थान-म०५.
(७९) स्मृतिवलाधाननियमनमिन्द्रियाणांचेतसिचेतसआत्मन्यात्मनश्चधातुभेदेनशरीरावयवसंख्यानामभीक्ष्णंसर्वकारणवदुःख-: मस्वमनित्यमित्यभ्युपगमः । सर्वप्रवृत्तिषुदुःखसंज्ञासर्वसंन्यासेसुखमित्यभिानवेशएषमार्गोऽपवर्गायअतोऽन्यथाबध्यतेइत्युदयनानिव्याख्यातानि ॥ २२ ॥
और अग्निसेवन धर्मशास्त्रका पढना और उसके अर्थको जानना तथा धर्मशास्त्रका आश्रय लेना और जो २ उसमें क्रिया कथन की हों उनको करना । श्रेष्ठ पुरुषोंकी सेवा करना । खोटे पुरुषोंको त्याग देना, दुर्जनोंसे संगति न करना, सत्य बोलना, संपूर्ण जीवोंका हित चाहना,विनासमय विनाविचारे तथा कठोर वाक्योंको नबोलना, सब प्राणियोंको अपनी आत्माके समान जानना, विषयोंका स्मरण न करना, विषयोंका संकल्प तथा इच्छा न करना, स्त्रियोंसे भाषण और प्रेम न करना तथा स्त्रियोंसे सब प्रकारके संबंधोंको त्यागदेना । गुह्यस्थान ढकनेके लिये कौपीन, गेरुए कपडे, गुदडी, सूई सीने के लिये तुंबा (जलपात्र) शौच के लिये,दण्डधारण, दांतन, भिक्षा मांगनेका पात्र, प्राणधारणके लिये एकसमय वनके कंद मूलादिक सेवन, यथाप्राप्ति भोजन, थकावट दूर करनेको ऊपरसे सूखकर गिरेहुए पत्रोंक आश्रय तथा घासका आसनाध्यान लगाने के लिये योगपट्ट,वनवृक्षोंकेनांचे निवास तंद्रा, निद्रा और आलस्यादि कर्मोंका वर्जन, इन्द्रियोंके विषयोंसे उपताप रखना तथा इंद्रियोंको वशमें रखना,निद्रा,स्थिति, गति, हष्टि, आहार, विहार तथा अंगा. दिकोंकी चेष्टामें विचारपूर्वक प्रवृत्त होना । तथा सत्कार, स्तुति, निन्दा और अपमान आदिकोंमें प्रसन्न तथा रंज न होना। श्रम, सर्दी, गर्मी, पवन, वृष्टि, मुख और दुःखको सहन करना । शोक, दीनता, द्वेष, मद, मान, लोभ, राग, इर्षा, भय, और क्रोध आदिकोंसे चलायमान न होना । अहंकारादिकाको उप. द्रव समझकर त्याग देना । आत्मामें और लोकपुरुषमें तुल्य दृष्टिसे देखना, अपने योगादिक या समाधि आदिक किसी कालको बिगडने नहीं देना। योगके आरम्भमें सदैव प्रेम लगाये रहे । अपने मनको सदैव सात्त्विक बनाता रहे । मोक्षके लिये बुद्धि, धृति, स्मृति इनके बलको ग्रहण करे । इन्द्रियोंका नियमन करे अर्थात जीते । अथवा इन्द्रियोंको चित्तमें और चित्तको आत्मामें स्थापन करे। शरीरावयवोंको धातु भेदसे जाने । यह शरीर धातुभेदसे बनाया है और निरतर संपूर्ण कार्य, कारण इसीसे होतेहैं । यह संयोगही : दुःखका कारण है । यह शरीर मनित्य है । सब प्रकारकी प्रवृत्ति दुःखको देनेवाली है और संपूर्ण सुखोंका