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शारीरस्थान अ०५.
(७३७) - माता, पिता, भाई, स्त्री, संतान, बंधु, मित्र, नौकर आदि सब मेरे हैं और मैं उनका हूं इसप्रकारकी बुद्धि होनेको अभ्यवपात कहतेहैं ॥ १५॥
विप्रत्ययका लक्षण । कार्याकाय्यहिताहितेशुभाशुभेषविपरीताभिनिवेशोविप्रत्ययः१६
कार्य और अकार्य,हित और आहित शुभ और अशुभ,इन सबमें विपरीतभावसे प्रवृत्त होना । जैसे अकार्यको कार्य हितको अहित और यहितको हित मानना आदि इस बुद्धिको विप्रत्यय कहतेहैं ॥ १६ ॥
विशेषका लक्षण । ज्ञाज्ञयो प्रकृतिविकारयोःप्रवृत्तिनिवृत्त्योश्चासामान्यदर्शनंवि. शेषः॥ १७ यह अज्ञ है,यह ज्ञानी है, यह प्रकृति है यह विकार है,यह प्रवृत्ति है,यह निवृत्ति है, इनसवको असामान्यदृष्टि से देखना विशेष कहाजाताहै ॥ १७ ॥
: अनुपायका लक्षण । प्रोक्षणानशनाग्निहोत्रत्रिषवणाभ्युक्षणवाहनयजनयाजनयाचनसलिलहुताशनप्रवेशनादयःसमारम्भाः प्रोच्यन्तेह्यनुपायाः ॥ १८॥ मोक्षण, उपवास, अग्निहोत्र, त्रिषवण, अभ्युक्षण, आवाहन, यजन, याजन, याचन, इनका करना तथा जल वा अनिमें प्रवेश आदि यह मोक्षलाभका अनुपा य है । अर्थात् मोक्षकी ओरसे हटकर स्वर्गादिकोंकी कामनासे प्रवृत्त होना मनुपाय कहाजाताहै ॥ १८॥
एवमयमधीधृतिस्मृतिरहङ्काराभिनिविष्टःसंसक्तःससंशयोऽभिसंप्लुतबुद्धिरभ्यवपतितोऽन्यथाहष्टिविशेषग्राहीविमार्गगतिनिवासवृक्षःसत्त्वशरीरदोषमूलानांमूलंसर्वदुःखानांभवति ॥१९॥ यह पुरुष इसप्रकार बुद्धि,धृति और स्मृतिसे रहित होकर अहंकारी, आसक्त, संशयी,प्लुतचित्तवृत्ति,अभ्यवपतित,अन्यथादृष्टि, विशेषग्राही कुमार्गगामी होनाता है। सत्त्वदोष अर्थात् मनके दोष और शरीरके दोषसे बढेहुए दुःखरूपी वृक्षका मूल होजाताहै । इसप्रकार अहंकार आदिकोंसे दुःखोंकी उत्पत्ति होतीहै ॥ १९ ॥
इत्येवमहंकारादिभिदोषाम्यमाणोनातिवर्ततेप्रवृत्तिःसा . मूलमघस्य ॥ २०॥ .
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