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शारीरस्थान-अ० ४.. (७२५). कि आत्मा तो निर्दोष है इसलिये आत्मगमें कोई विकृति भी नहीं होती । परन्तु शारीरिक और मानसिक दो प्रकारके दोष होते हैं। सो शरीर और मनको दूषित करते हैं यदि उनका कोई गर्भसे सम्बन्ध होगाताहै, तो जिसप्रकार जिस अवयव और जिस अंशमें उनका दुष्ट होकर प्रवेश होताहै उसीको विगाड देते हैं।याद वह कुपित नहीं होते किंवा दुष्ट नहीं होते तो किसी प्रकारके उपद्रवको भी नहीं करते ॥४१॥ ४२ ॥
तत्रशरीरंयोनिविशेषाचतुर्विधमुक्तंमत्रिविधंखलुसत्त्वंशुद्धं राजसतामसमिति । तत्रशद्धमदोषमाख्यातंकल्याणांशत्वात्। राजसंसदोषमाख्यातंरोषांशत्वात् । तथातामसमापिसदोषमाख्यातंमोहांशत्वात् ॥४३॥ शरीरकी चार प्रकारकी योनिका पहिले कथन करचुकेहैं । मन तीन प्रकार• का होताहै । सात्तिक, राजस और तामल । इनमें सात्त्विक मन निर्दोष होताहै। इसलिये वह कल्याणयुक्त कहाजाताहै। और यह मोक्षसाधनादि कार्यको करनेवाला होताहै रानस मन रोषका अंशवाला होनेसे दोषयुक्त कहाजाताहै । तामस मन -मोहका अंश अधिक होनेसे अतिदोषयुक्त होताहै ॥ ४३ ॥
. सत्त्वके अनेक भेद । तेषान्तत्रयाणामपिलस्वानामेकैकस्यभेदायमपरिसंख्येयंतरतमयोगाच्छरीरयोनिविशेषेण्यश्चान्योन्याविधानत्वाच्च। शरीरमपिसत्त्वसनुविधीयतेसत्त्वञ्चशरीरंतस्मात्कतिचिच्चसत्त्वभेदालनुकसादृश्याभिनिर्देशेननिदर्शलार्थमनुव्याख्यास्यामः॥४४॥ इन तीनों प्रकारके मनोंमें एकएकका भेद भी असंख्य होताहै । क्योंकि एकएककी अधिकता और न्यूनता आदि भेदसे और शररियोनि विशेषसे तथा इनके परस्पर अनुसंधान विशेषसे असंख्य होजातेहैं । शरीर भी सत्यकेही अनुरूप होताहै और सत्त्व शरीरके अनुरूप होताहै । इन दोनोंक साश्यके अनुसार कितने प्रकारके पुरुष विशेष होतेहैं उनके निदर्शनके लिये वर्णन करतेहैं ॥ ४४ ॥
ब्राह्मका लक्षण । तद्यथाशचिंलत्याभिलन्बंजितासानंसंविभागिज्ञानविज्ञान१ जरायुज अण्डन उद्भिज स्वेदज ।