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चरकसंहिता - भा० टी० १ सत्त्वके भेदोंका संक्षिप्त वर्णन |
शुद्धस्य सत्वस्य सप्तविधोत्रह्मर्षिशक्रवरुणयम कुवेर गन्धर्वसत्वानुकारेण । राजसस्यषविधोदैत्यराक्षसपिशाचसर्पप्रेतशकुनि - सच्चानुकारेण । तामसस्यत्रिविधःपशुमत्स्यवनस्पतिसत्त्वानुकारेण । कथञ्चयथासत्त्वमुपचारः स्यादिति । केवलश्चायमुद्दे - शः यथोदेशमभिनिर्दिष्टो भवति । गर्भावकान्तिसंप्रयुक्तस्यार्थस्यविज्ञाने सामर्थ्यगर्भकराणाञ्च भावानामनुसमाधिर्विघातश्च विघातकराणां भावानामिति ॥ ६५ ॥
शुद्ध सत्त्वके- ब्रह्म, ऋषि, इन्द्र, वरुण, यम, कुवेर और गंधर्व सन्धानुक्रमसे सच्चके मतभेद कथन किये हैं । रजोगुण प्रधान दैत्य, राक्षस, पिशाच, सर्प, प्रेत, पक्षी यह छः प्रकारके भेद राजसमनके कथन किये हैं । तामस सत्त्वके अनुक्रम से पशु, मत्स्य, वनस्पति यह तीन भेद कथन किये हैं । जिस गर्भमें जिस सत्त्वके लक्षण पाये जायँ उसका उसी प्रकार पालन पोषण आदि उपचार करना चाहिये । यह उपरोक्त लक्षण यदि दौहृदकी समय गर्भवती खोमें हो तो जिस प्रकार के लक्षण हों उसको उसी प्रकार की संतान होगी । इस स्थानमें इन तीनप्रकारके सत्त्वों का इसी उद्देशसे वर्णन कियागया है। इस संपूर्ण विवरणके जान लेने से किस समय गर्भमें किस प्रकारक द्रव्योंका प्रयोग करना और गर्भ में हितकारक तथा गर्भकारण द्रव्योंका अनुयोजन एवम् गर्भविघातक कारणोंके प्रतिविधान में योग्यता उत्पन्न 'होजाती है ॥ ६५ ॥
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अध्यायका उपसंहार । तत्रश्लोकाः । निमित्तमात्माप्रकृतिर्वृद्धिः कुक्षौक्रमेणच । वृद्धिहेतुश्वगर्भस्यपञ्चार्थाः शुभसंज्ञिताः ॥ ६६ ॥
यहां पर श्लोक हैं- कि निमित्त, आत्मा, प्रकृति, गर्मक्रम और गर्भका कुक्षीमें क्रमपूर्वक बढना, उसके बढने के हेतु, गर्भ के उत्पन्न करनेवाले पांच शुभ अर्थ, वर्ण कियेगये ॥ ६६ ॥
यज्जन्मनिचयो हेतुर्विनाशेविकृतावपि ।
इमांस्त्रीन शुभान्भावाना हुर्गर्भविघातकान् ॥ ६७ ॥