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चरकसंहिता - भा० टी० 1
प्रसवका समय ।
तस्मिन्नेकदिवसातिक्रान्तेऽपिनवममा समुपादाय प्रसवकालमित्याहुरा दशमान्मासादेतावान्कालोवैकारिकम् ॥ २८ ॥
आठवें महीनेके उपरान्त नवम महोनेका एकदिन व्यतीत होनेपर भी नवां अहीनाही गिनाजाता है और वह प्रसवका समय मानाजाता है । नवमें मासके प्रथम दिनसे लेकर दशम महीने के अंततक प्रसूतका प्राकृत (ठीक) अर्थात् योग्य समय मानाजाताहै । फिर दशवेंके उपरान्त सव दिन वैकारिक समय माना जाता है ॥ २८ ॥
अतः परंकुक्षौस्थानंगर्भस्य । एवमनयानुपूर्व्याभिनिर्वर्तते कुक्षों ॥ २९ ॥
'गर्भका निवासस्थान कुक्षी है और उस कुक्षीमेंही इस पूर्वोक्त क्रमसे गर्भ प्रकट होता ॥ २९ ॥
मात्रादीनान्तुखलुगर्भकराणां भावानांसम्पदस्तथातिवृत्तस्य सौष्ठवान्मातृतश्चैवोपस्नेहो पस्वेदाभ्यां कालपरिणामात्स्वभाव
संसिद्धेश्च कुक्षौवृद्धिंप्राप्नोति । मात्रादीनान्तुखलुगर्भ कराणां भावानांव्यापत्तिनिमित्तमस्याजन्मभवति ॥ ३० ॥
माता आदि गर्भकारक भावका सम्पन्न होनेसे तथा हित आचारादिकों के सेवनसे, उपस्नेह और उपस्वेद के योगसे, तथा काल और स्वभावके प्रभावसे गर्भ कुक्षी में वृद्धिको प्राप्त होता है। और माता आदिके भावों केही संपन्न न होनेसे अथवा अनाचार के होनेसे गर्भका जन्म नहीं होता ॥ ३० ॥
येत्वस्य कुक्षौ वृद्धि हेतुसमाख्याताभावास्तेषां विपर्य्यया दुदरेविनाशमापद्यतेऽथवाप्यचिरजातः स्यात् ॥ ३१ ॥
गर्भको बढानेवाले भावों की प्राप्ति न होनेसे गर्म पेटमेंही नष्ट हो जाता है । याहूँ नष्ट न हो तो बहुत विलंब से उत्पन्न होता है ॥ ३१ ॥ यतस्तुकात्स्न्येनाविनश्यन्त्रिकति मापद्यते तदनुव्याख्यास्यामः ३२० जिन कारणों से गर्भ सर्वथा नष्ट न होकर विकारको प्राप्त होजाता है उनको कथन करते हैं ॥ ३५ ॥
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दूषित रक्तजन्य विकृतावयव ।
यदा. स्त्रियादोष प्रकोपनोकान्यास व माना या दोषाः प्रकुपिताःश