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चरकसंहिता - भा० टी० ।
दूसरे महीने में धन होकर पिंडके आकारका वनजाता है । यदि पुरुपका शरीर होना हो तो वह पिंड गोल होजाता है । और स्त्रीका हो तो लम्बी मांसपेशीसी हो जा सीहै । और नपुंसक होना हो तो अर्बुद (बुलबुला ) के समान होता है ॥ ७ ॥ तृतीये मासि सर्वेन्द्रियाणि सर्वाङ्गावयवाश्च यौगपद्येन अभिनिर्वर्त्तन्ते ॥ ८ ॥
तीसरे महीने में सम्पूर्ण इन्द्रियां और सर्वांगावयव एककालमें ही प्रगट जाते हैं ॥ ८ ॥
तत्रास्य केचिदङ्गावयवा मातृजादी नवयवान्विभज्यपूर्वमुक्कायथावन्महाभूतविकारप्रविभागेन तुइदानीमस्यतांश्चैव अङ्गावयवान्कांश्चित्पर्य्यायान्तरेणपरांश्चअनुव्याख्यास्यामः ॥ ९ ॥
उसव अंगावयवों में जो मातृज आदिक अंगावयव होते हैं उनको तो हम क्रमपूर्वक प्रथमदी कथन करचुकेहैं । अन पांचमहाभूतोंके क्रमसे आकाशादिकोंकें जो धी अंग उत्पन्न होते हैं तथा अन्य भी जो अंग जिसप्रकार उत्पन्न होते हैं उनका वर्णन करते हैं ॥ ९ ॥
गर्भका आकाशात्मक अवयव । मातृजादयोऽप्यस्य महाभूतविकाराएवतत्रास्थाकाशात्मकंशब्दःश्रोत्रंलाघवं सौक्ष्म्यंविवेकश्च ॥ १० ॥
मातृज आदिक जितने गर्भके अंग होते हैं वह सब पांचमहाभूतोंकेही विकार हैं उन पांचो में शब्द, श्रोत्र, लघुता, सूक्ष्मता और विभाग अथवा छिद्र यह सब व्याकाशके विकार होते हैं । अर्थात् आकाशसे उत्पन्न होते हैं ॥ १० ॥
गर्भका वाय्वात्मक अवयव ।
वोय्वात्मकं स्पर्शः स्पर्शनञ्च रौक्ष्यं प्रेरणंधातृव्यूहनंचेष्टाश्चशा: रयिः ॥ ११ ॥
स्पर्श, स्पर्शनेंद्रिय, रूक्षता, प्रेरणा, धातुओंकी रचना और शरीरकी चेष्टा यह सब वायुके विकार हैं ॥ ११ ॥
गर्भका अग्न्यात्मक अवयव । अग्न्यात्मकरूपं दर्शनंप्रकाशः पक्तिरौष्ण्यञ्च ॥ १२ ॥
रूप, चक्षुन्द्रि प्रकाश, जठराग्नि और गर्मी यह सब अग्निके विकार हैं ॥ १२ ॥