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शारीरस्थान-अ०.३.... (६९७)
तृतीयोऽध्यायः। अथातः खुड्डीकागर्भाऽवक्रान्तिंशारीरं व्याख्यास्याम इति. हस्माह भगवानात्रेयः। . . अब हम खुड्डीकागर्भावक्रान्ति शारीरकी व्याख्या करतेहैं इसप्रकार भगवान मात्रेयजी कथत करनेलगे।
गर्भकी उत्पत्ति .। पुरुषस्यानुपहतरेतसःस्त्रियाश्चाप्रदुष्टयोनिशोणितगाशयाया सदाभवतिसंसर्गऋतुकाले। यदाचानयोस्तथैवयुक्तयोःसंसर्गे तुशुकशोणितसंसर्गमन्तर्गर्भाशयगतंजीवोऽवकासतिसत्त्वस
प्रयोगात्तदागोऽभिनिवर्तते ॥ १॥ अनुपहत अर्थात् पुष्ट और शुद्धवीर्यवाले पुरुषका ऋतुसे शुद्ध हुई शुद्ध योनि,शुद्ध रज और दोषरहित गर्भाशयाली स्त्रीसे संयोग होनेसे पुरुषका वीर्य और स्त्रीका रज यह दोनों मिलकर जब गर्भाशयमें पहुंचतेहैं उसीसमय जीवात्मा भी मनोवैगसे झट उस शुक्रशोणितके साथही गर्भाशयमें प्रवेश करजाता है फिर वह गर्भ कहा नाताहै ॥ १॥
लसात्म्यरसोपयोगादरोगोऽभिसंबद्धतेसम्यगुपचारेश्वोपवर्यमाणः । ततःप्राप्तकालःसर्वेन्द्रियोपपन्न परिपूर्णसर्वहारीरोवलवर्णसत्त्वसंहलनसम्पदपेतःसुखेलजायतेसमुदायादेषां मावानाम् ॥२॥. . वह गर्भ माता साम्यरसके सेवन करनेसे और उत्तम हितकर उपचारके आच. रणसे वृद्धिको प्राप्त होताजावाहै । फिर इसप्रकार संपूर्ण इन्द्रियों से सम्पन्न साँग संपूर्ण वल, वर्ण, और सत्वयुक्त होकर गठनको प्राप्त हुआ अपने ठीकसमयपर इन . सव भावोंके पूर्ण होनेसे सुखपूर्वक जन्म लेताहै ॥ २॥
. . गर्भोके भेद। . . . : मातृजश्चायंगःपितजश्चात्लजश्चलात्स्यजश्चरसजश्चास्तिच. : सत्त्वसंज्ञमौपपादिकामत्तिहांवाचभगवानात्रेयः॥३॥ . . . - १ पूर्वाध्याये शुक्रशोणिते गर्भकारणत्वेनोक्त, नतु कृत्स्नं गर्भकारणमुक्तम् अत.सम्पूर्णगर्भकार... माभिधाना खंड्डिका गंभविक्रांतिरुच्यते खुड्किांमित्यल्पाम् । ।