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चरकसंहिता-भा०टी०। __रससे भी गर्भकी उत्पत्ति नहीं होती है। यदि रसजगर्भ होता तो भी याव
मात्र प्राणियोंमें कोई भी संतानरहित देखने में नहीं आता । क्योंकि ऐसा कोई भी पुरुष और स्त्री नहीं है जो रसोंका सेवन न करता हो । यदि कहें कि उत्तम रस -सेवनसे संतान होती है तो जो मनुष्य निरंतर वकरां, मेंढा, मृग और मोर
आदिका मांसरस खाते हैं तथा गौओंका दूध, दही, घृत एवं मधु, तैल, लवण, इक्षुरस (खांड, मिसरी), मूंग, चावल आदिका उत्तम भोजन करतेहैं और हृष्ट, 'पुष्ट शरीर हैं उन्हींको संतान होनी चाहिये थी और जो मनुष्य श्यामाक, क्षुद्र जव, कोदो, कोढेसक, कंद, मूल तथा अन्य रूक्ष भोजन करते हैं वह सव संतानरहित होते । परन्तु दोनों प्रकार देखनेमें नहीं आता । जो मनुष्य उत्तम रसोंका भोजन करते हैं और जो रूक्ष भोजन करतेहैं इन दोनोंकाही संतानयुक्त होना और नि:सं. सान होना बराबर दिखाई देता है। इसलिये गर्भ रसज होता है यह भी सिद्ध नहीं होता ।। ६॥ .
गर्भका सत्त्वगुणी न होना। नखलुअपिपरलोकादेत्यसत्त्वंगर्भसवकामति । बदित्वेनसवक्रामेनास्याकिञ्चिदेवपार्वदेहिकस्यादविदितमश्रुतमष्टं वा । सचकिञ्चिदपिनस्मरतितस्मादेतलहे अमातृजপ্রাণিজঞ্জালালভাবালাহলম্বা ছিল ।
सत्त्वमीपपादिकमिविहोवाच सरद्वाजः ॥७॥ . . परलोकसे आकर सत्त्वसंज्ञक मन भी गर्भके संबंधको उत्पन्न नहीं करता। यदि. -वह परलोकसे आकर गर्भ में मिलनाता तो उसको पहिले देहके सम्पूर्ण व्यापार जाने सुने और देखे याद रहने चाहिये थे । परन्तु वह किसीको भी स्मरण नहीं करता। इसलिये सत्त्वसंज्ञक मन भी गर्भसे सम्बन्ध नहीं रखता। इस कारणसही हम कहते हैं कि गर्भ न मात्रज है, न पितृज है ने आत्मज है,न सात्स्यज़ है,और न रसज है तथा सत्त्व संज्ञक यन भी उसके सम्बन्धका उत्पादक नहीं है ।जब इसप्रकार कुमारशिरा भरद्वाजने कहा ।। ७ ।।
. . . . . . ' : आत्रेयका मत। तिभगवानात्रेयः। सर्वेभ्यएभ्यो भावयासमुदितेभ्योगभोऽभिनिवर्तते। मातृजश्चायंगर्मोनहि मातुर्विनागर्भोपपत्तिः: स्यान्नचजन्मजरायुजानाम् । यानिखलुअस्यगंभस्य मातृजा