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शारीरस्थान-१०३. जनिष्यमाणत्व दोनोंही हैं। वह गर्भात्मा जात होकरभा अर्थात् गर्भावस्थामें उत्पन्न होकर भी गर्भको उत्पन्न करताहै और वही अपनी आनेवाली अवस्थान्तरको भी उत्पन्न करता है । नित्य पदार्थका अवस्थान्तरही जन्म कहाजाताहै । वह जिसजिस अवस्थामें पहुंचताहै वहीं उसका जन्म है । जैसे-शुक्र, शोणित और जीवके पृथकू सहवेहुए भी संयोग होने विना जीवत्व उत्पन्न नहीं होता । और जैसे पुत्र उत्पन्न होनेसे पहिले पिता रहतेहुए भी उसमें पितृत्वधर्म नहीं आता उसीप्रकार आत्मा भी उसंउस अवस्थामें रहताहुया जातत्व और अजातत्वको प्राप्त नहीं होता॥१॥
नतुखलुगर्भस्यमातुर्नपितु त्मनःसर्वभावषुयथेष्टकारित्वम
स्ति । तेकिञ्चित्स्ववशाकुर्वन्तिकिञ्चित्कर्मवशात्वचिच्चैषांकर. णशक्तर्भवतिक्कचिनभवतिायनसत्त्वादिकरणसम्पत्तत्रयथाव- ।
लमेवयथेष्टकारित्वमतोऽन्यथाविपर्ययः। नचकरणदोषादका-- • रणमात्मागर्भजननेसम्भवति ॥ १२ ॥
माता पिता और आत्मा इन सबमें से कोई एक संपूर्णभावसे गर्भको उत्पन्न करनेमें यथेष्टकारी नहीं होसकताअर्थात् अपने आधीन होकर अपने वशसे)माता या पिता या आत्मा अकेला कोई गर्भको प्रगट नहीं करसकता। इनमें कोई अपने वशसे गर्भ में इष्टकारी होतेहैं,कोई कर्मवशसे इष्टकारी होतेहैं।कहीं इनकी करणशाक्त कार्य करने में सामर्थ्यवान् होती है और कहीं नहीं भी होती । इसालये जिस जगह सत्त्वादि करणशक्तिकी उत्कृष्टता होतीहै उसजगह यथावल यथेष्टकारिता होजातीहै । जिसजगह सवादि करणशक्तिकी उत्कृष्टता नहीं होती वहांपर कार्यसिद्धि नहीं होसकती । करणके दोषसे आत्मा गर्भोत्पन्न करनेमें कारण नहीं होता, ऐसा नहीं अर्थात् आत्मा. संपूर्णसंयोग मिलनसे गर्भको उत्पन्न करनेमें कारण होताहै ॥ १२॥
दृष्टश्चचेष्टायोनिरैश्वर्थमोक्षश्चात्मविद्भिरात्मायत्तम्। नान्यः सुखदुःखयोः कर्त्तानचान्यतोगर्भजायतेजायमानोनचअंकु. रोत्पत्तिरबीजात् ॥१३॥
आत्मज्ञानी महात्मा चेष्टा, योनि, ऐश्वर्य और मोक्ष इनसवको अपने आधीन रखतेहैं ऐसा देखने में आताहै। आत्माके सिवाय सुखदुःखका और कोई कर्ता नहीं है । आत्माके सिवाय और कोई गर्भको उत्पन्न नहीं कर सकता । आत्मासेही गर्भकी उत्पत्ति है । कारणके समानही कार्यकी उत्पत्ति देखने में आतीहै । ऐसा नहीं होता कि विना वीजके अंकुर पैदा हो ॥ १३ ॥