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चरकसंहिता-मा० टी०। शरदऋतुमें संशोधन अर्थात्-वमन,विरेचन द्वारा शुद्ध कर देना चाहिये । ऐसा कर जेसे ऋतुजन्य दोष उत्पन्न नहीं होने ।। ४३ ।। . नरोहिताहारविहारसेवसिमीक्ष्यकारीविषयेण्वसक्तः । दाता. .. ___ समःसत्यपरःक्षमावानाप्तोपसेवीचभवत्यरोगः ॥ ४४ ... ... .
जो मनुष्य हित आहार और हितविहारोंका सेवन करताहै तथा संपूर्ण कार्योंकों विचार कर करताहै और विषयोंमें आसक्त नहीं होता तथा दान,समता,सत्य और क्षमापरायण होताहै तथा आप्तजनोंका सेवन करताहै वह सदा रोगरहित रहताहै ॥४४॥
मतिर्वचःकर्मसुखानुबन्धिसत्त्वंविधेयंविशदाचबुद्धिः । ज्ञानं . तपस्तत्परताचयोगेयस्यास्तितंनानुपतन्तिरोगाः ॥४५॥ जिस मनुष्यकी मति, वचन, कर्म यह हितकारक हों और मन अपने आधीन हो, बुद्धि स्वच्छ हो, एवम् ज्ञान, तपस्या तथा योगमें चित्त लगा हुआ हो ऐसे मनुष्यों के ऊपर रोग आक्रमण नहीं कर सकते ॥ ४५ ॥ -
___ अध्यायका उपसंहार । । इहाधिवेशस्यमहार्थयुक्तंपत्रिंशकंप्रश्नगणमहर्षिः। अतुल्यगोनेभगवान्यायनिर्णीतवाज्ञानाविवर्द्धनार्थम् ॥ ४६ ॥ . इति चरकसंहितायां शारीरस्थानेऽतुल्यगोत्रीयंशारिं ..
- समाप्तम् ॥ २॥
यहां अध्यायशी पूर्तिमें श्लोक है
दिइस अतुल्यगोत्रीय शारीराध्यायमें अग्निवेशके महान् अर्थवाले छब्बीस ३६ प्रश्नों का निर्णय भगवान् आत्रेयजीने वैद्योंके ज्ञानकी वृद्धिके लिये कथन कियाहै ॥ ४६॥ इति श्रीमहर्पिचरक शारी०स्था भाषाटी अनुल्यगोत्रीयशारीरं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥२॥
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